है, जो कर्मसमूहके अन्धकारको नष्ट करनेके लिये सम्यग्ज्ञानरूपी तेज है तथा जो अपनी
निर्विकार महिमामें लीन है — ऐसा यह प्रायश्चित्त वास्तवमें उत्तम पुरुषोंको होता है ।१८५।
[श्लोकार्थ : — ] यमियोंको ( – संयमियोंको) आत्मज्ञानसे क्रमशः आत्मलब्धि
(आत्माकी प्राप्ति) होती है — कि जिस आत्मलब्धिने ज्ञानज्योति द्वारा इन्द्रियसमूहके घोर
अन्धकारका नाश किया है तथा जो आत्मलब्धि कर्मवनसे उत्पन्न (भवरूपी) दावानलकी
शिखाजालका (शिखाओंके समूहका) नाश करनेके लिये उस पर सतत शमजलमयी
धाराको तेजीसे छोड़ती है — बरसाती है ।१८६।
[श्लोकार्थ : — ] अध्यात्मशास्त्ररूपी अमृतसमुद्रमेंसे मैंने जो संयमरूपी रत्नमाला
बाहर निकाली है वह (रत्नमाला) मुक्तिवधूके वल्लभ ऐसे तत्त्वज्ञानियोंके सुकण्ठका
आभूषण बनी है ।१८७।
[श्लोकार्थ : — ] मुनीन्द्रोंके चित्तकमलके (हृदयकमलके) भीतर जिसका वास
है, जो विमुक्तिरूपी कान्ताके रतिसौख्यका मूल है (अर्थात् जो मुक्तिके अतीन्द्रिय आनन्दका
(मंदाक्रांता)
आत्मज्ञानाद्भवति यमिनामात्मलब्धिः क्रमेण
ज्ञानज्योतिर्निहतकरणग्रामघोरान्धकारा ।
कर्मारण्योद्भवदवशिखाजालकानामजस्रं
प्रध्वंसेऽस्मिन् शमजलमयीमाशु धारां वमन्ती ।।१८६।।
(उपजाति)
अध्यात्मशास्त्रामृतवारिराशे-
र्मयोद्धृता संयमरत्नमाला ।
बभूव या तत्त्वविदां सुकण्ठे
सालंकृतिर्मुक्ति वधूधवानाम् ।।१८७।।
(उपेन्द्रवज्रा)
नमामि नित्यं परमात्मतत्त्वं
मुनीन्द्रचित्ताम्बुजगर्भवासम् ।
विमुक्ति कांतारतिसौख्यमूलं
विनष्टसंसारद्रुमूलमेतत् ।।१८८।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार[ २३७