Niyamsar (Hindi).

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२३६ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
चरणानां परमाचरणमित्युक्त म्

बहुभिरसत्प्रलापैरलमलम् पुनः सर्वं निश्चयव्यवहारात्मकपरमतपश्चरणात्मकं परम- जिनयोगीनामासंसारप्रतिबद्धद्रव्यभावकर्मणां निरवशेषेण विनाशकारणं शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त- मिति हे शिष्य त्वं जानीहि

(द्रुतविलंबित)
अनशनादितपश्चरणात्मकं
सहजशुद्धचिदात्मविदामिदम्
सहजबोधकलापरिगोचरं
सहजतत्त्वमघक्षयकारणम्
।।१८४।।
(शालिनी)
प्रायश्चित्तं ह्युत्तमानामिदं स्यात
स्वद्रव्येऽस्मिन् चिन्तनं धर्मशुक्लम्
कर्मव्रातध्वान्तसद्बोधतेजो
लीनं स्वस्मिन्निर्विकारे महिम्नि
।।१८५।।

निश्चयप्रायश्चित्त है; इसप्रकार निश्चयप्रायश्चित्त समस्त आचरणोंमें परम आचरण है ऐसा कहा है

बहुत असत् प्रलापोंसे बस होओ, बस होओ निश्चयव्यवहारस्वरूप परमतपश्चरणात्मक ऐसा जो परम जिनयोगियोंको अनादि संसारसे बँधे हुए द्रव्यभावकर्मोंके निरवशेष विनाशका कारण वह सब शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त है ऐसा, हे शिष्य ! तू जान

[अब इस ११७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज पाँच श्लोक कहते हैं : ]

[श्लोकार्थ : ] अनशनादितपश्चरणात्मक (अर्थात् स्वरूपप्रतपनरूपसे परिणमित, प्रतापवन्त अर्थात् उग्र स्वरूपपरिणतिसे परिणमित) ऐसा यह सहज - शुद्ध - चैतन्यस्वरूपको जाननेवालोंका सहजज्ञानकलापरिगोचर सहजतत्त्व अघक्षयका कारण है १८४

[श्लोकार्थ : ] जो (प्रायश्चित्त) इस स्वद्रव्यका धर्म और शुक्लरूप चिंतन सहजज्ञानकलापरिगोचर = सहज ज्ञानकी कला द्वारा सर्व प्रकारसे ज्ञात होने योग्य अघ = अशुद्धि; दोष; पाप (पाप तथा पुण्य दोनों वास्तवमें अघ हैं ) धर्मध्यान और शुक्लध्यानरूप जो स्वद्रव्यचिंतन वह प्रायश्चित्त है