बहुभिरसत्प्रलापैरलमलम् । पुनः सर्वं निश्चयव्यवहारात्मकपरमतपश्चरणात्मकं परम- जिनयोगीनामासंसारप्रतिबद्धद्रव्यभावकर्मणां निरवशेषेण विनाशकारणं शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त- मिति हे शिष्य त्वं जानीहि ।
सहजशुद्धचिदात्मविदामिदम् ।
सहजतत्त्वमघक्षयकारणम् ।।१८४।।
लीनं स्वस्मिन्निर्विकारे महिम्नि ।।१८५।।
निश्चयप्रायश्चित्त है; इसप्रकार निश्चयप्रायश्चित्त समस्त आचरणोंमें परम आचरण है ऐसा कहा है ।
बहुत असत् प्रलापोंसे बस होओ, बस होओ । निश्चयव्यवहारस्वरूप परमतपश्चरणात्मक ऐसा जो परम जिनयोगियोंको अनादि संसारसे बँधे हुए द्रव्यभावकर्मोंके निरवशेष विनाशका कारण वह सब शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त है ऐसा, हे शिष्य ! तू जान ।
[अब इस ११७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज पाँच श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] अनशनादितपश्चरणात्मक (अर्थात् स्वरूपप्रतपनरूपसे परिणमित, प्रतापवन्त अर्थात् उग्र स्वरूपपरिणतिसे परिणमित) ऐसा यह सहज - शुद्ध - चैतन्यस्वरूपको जाननेवालोंका १सहजज्ञानकलापरिगोचर सहजतत्त्व २अघक्षयका कारण है ।१८४।
[श्लोकार्थ : — ] जो (प्रायश्चित्त) इस स्वद्रव्यका ❃धर्म और शुक्लरूप चिंतन १ — सहजज्ञानकलापरिगोचर = सहज ज्ञानकी कला द्वारा सर्व प्रकारसे ज्ञात होने योग्य २ — अघ = अशुद्धि; दोष; पाप । (पाप तथा पुण्य दोनों वास्तवमें अघ हैं ।) ❃ धर्मध्यान और शुक्लध्यानरूप जो स्वद्रव्यचिंतन वह प्रायश्चित्त है ।