Niyamsar (Hindi). Gatha: 117.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार[ २३५
(शालिनी)
यः शुद्धात्मज्ञानसंभावनात्मा
प्रायश्चित्तमत्र चास्त्येव तस्य
निर्धूतांहःसंहतिं तं मुनीन्द्रं
वन्दे नित्यं तद्गुणप्राप्तयेऽहम्
।।१८३।।
किं बहुणा भणिएण दु वरतवचरणं महेसिणं सव्वं
पायच्छित्तं जाणह अणेयकम्माण खयहेऊ ।।११७।।
किं बहुना भणितेन तु वरतपश्चरणं महर्षीणां सर्वम्
प्रायश्चित्तं जानीह्यनेककर्मणां क्षयहेतुः ।।११७।।
इह हि परमतपश्चरणनिरतपरमजिनयोगीश्वराणां निश्चयप्रायश्चित्तम् एवं समस्ता-

[भावार्थ : ] जीव धर्मी है और ज्ञानादिक उसके धर्म हैं परम चित्त अथवा परम ज्ञानस्वभाव जीवका उत्कृष्ट विशेषधर्म है इसलिये स्वभाव - अपेक्षासे जीवद्रव्यको प्रायः चित्त है अर्थात् प्रकृष्टरूपसे ज्ञान है जो परमसंयमी ऐसे चित्तकी (परम ज्ञानस्वभावकी) श्रद्धा करता है तथा उसमें लीन रहता है, उसे निश्चयप्रायश्चित्त है ]

[अब ११६वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]

[श्लोकार्थ : ] इस लोकमें जो (मुनीन्द्र) शुद्धात्मज्ञानकी सम्यक् भावनावन्त है, उसे प्रायश्चित्त है ही जिसने पापसमूहको झाड़ दिया है ऐसे उस मुनीन्द्रको मैं उसके गुणोंकी प्राप्ति हेतु नित्य वंदन करता हूँ १८३

गाथा : ११७ अन्वयार्थ :[बहुना ] बहुत [भणितेन तु ] कहनेसे [किम् ] क्या ? [अनेककर्मणाम् ] अनेक कर्मोंके [क्षयहेतुः ] क्षयका हेतु ऐसा जो [महर्षीणाम् ] महर्षियोंका [वरतपश्चरणम् ] उत्तम तपश्चरण [सर्वम् ] वह सब [प्रायश्चित्तं जानीहि ] प्रायश्चित्त जान

टीका :यहाँ ऐसा कहा है कि परम तपश्चरणमें लीन परम जिनयोगीश्वरोंको
बहु कथनसे क्या जो अनेकों कर्म - क्षयका हेतु है
उत्तम तपश्चर्या ऋषिकी सर्व प्रायश्चित्त है ।।११७।।