[भावार्थ : — ] जीव धर्मी है और ज्ञानादिक उसके धर्म हैं । परम चित्त अथवा
परम ज्ञानस्वभाव जीवका उत्कृष्ट विशेषधर्म है । इसलिये स्वभाव - अपेक्षासे जीवद्रव्यको
प्रायः चित्त है अर्थात् प्रकृष्टरूपसे ज्ञान है । जो परमसंयमी ऐसे चित्तकी ( – परम
ज्ञानस्वभावकी) श्रद्धा करता है तथा उसमें लीन रहता है, उसे निश्चयप्रायश्चित्त है । ]
[अब ११६वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] इस लोकमें जो (मुनीन्द्र) शुद्धात्मज्ञानकी सम्यक् भावनावन्त
है, उसे प्रायश्चित्त है ही । जिसने पापसमूहको झाड़ दिया है ऐसे उस मुनीन्द्रको मैं उसके
गुणोंकी प्राप्ति हेतु नित्य वंदन करता हूँ । १८३ ।
गाथा : ११७ अन्वयार्थ : — [बहुना ] बहुत [भणितेन तु ] कहनेसे [किम् ]
क्या ? [अनेककर्मणाम् ] अनेक कर्मोंके [क्षयहेतुः ] क्षयका हेतु ऐसा जो [महर्षीणाम् ]
महर्षियोंका [वरतपश्चरणम् ] उत्तम तपश्चरण [सर्वम् ] वह सब [प्रायश्चित्तं जानीहि ]
प्रायश्चित्त जान ।
टीका : — यहाँ ऐसा कहा है कि परम तपश्चरणमें लीन परम जिनयोगीश्वरोंको
(शालिनी)
यः शुद्धात्मज्ञानसंभावनात्मा
प्रायश्चित्तमत्र चास्त्येव तस्य ।
निर्धूतांहःसंहतिं तं मुनीन्द्रं
वन्दे नित्यं तद्गुणप्राप्तयेऽहम् ।।१८३।।
किं बहुणा भणिएण दु वरतवचरणं महेसिणं सव्वं ।
पायच्छित्तं जाणह अणेयकम्माण खयहेऊ ।।११७।।
किं बहुना भणितेन तु वरतपश्चरणं महर्षीणां सर्वम् ।
प्रायश्चित्तं जानीह्यनेककर्मणां क्षयहेतुः ।।११७।।
इह हि परमतपश्चरणनिरतपरमजिनयोगीश्वराणां निश्चयप्रायश्चित्तम् । एवं समस्ता-
कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार[ २३५
बहु कथनसे क्या जो अनेकों कर्म - क्षयका हेतु है ।
उत्तम तपश्चर्या ऋषिकी सर्व प्रायश्चित्त है ।।११७।।