चित्तमित्यनर्थान्तरम् । अत एव तस्यैव परमधर्मिणो जीवस्य प्रायः प्रकर्षेण चित्तं । यः परमसंयमी नित्यं ताद्रशं चित्तं धत्ते, तस्य खलु निश्चयप्रायश्चित्तं भवतीति ।
[श्लोकार्थ : — ] क्रोधकषायको क्षमासे, मानकषायको मार्दवसे ही, मायाको आर्जवकी प्राप्तिसे और लोभकषायको शौचसे ( – सन्तोषसे) जीतो । १८२ ।
गाथा : ११६ अन्वयार्थ : — [तस्य एव आत्मनः ] उसी (अनन्तधर्मवाले) आत्माका [यः ] जो [उत्कृष्टः बोधः ] उत्कृष्ट बोध, [ज्ञानम् ] ज्ञान अथवा [चित्तम् ] चित्त उसे [यः मुनिः ] जो मुनि [नित्यं धरति ] नित्य धारण करता है, [तस्य ] उसे [प्रायश्चित्तम् भवेत् ] प्रायश्चित्त है ।
उत्कृष्ट ऐसा जो विशिष्ट धर्म वह वास्तवमें परम बोध है — ऐसा अर्थ है । बोध, ज्ञान और चित्त भिन्न पदार्थ नहीं हैं । ऐसा होनेसे ही उसी परमधर्मी जीवको प्रायः चित्त है अर्थात् प्रकृष्टरूपसे चित्त ( – ज्ञान) है । जो परमसंयमी ऐसे चित्तको नित्य धारण करता है, उसे वास्तवमें निश्चय – प्रायश्चित्त है ।