Niyamsar (Hindi). Gatha: 116.

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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
(आर्या)
क्षमया क्रोधकषायं मानकषायं च मार्दवेनैव
मायामार्जवलाभाल्लोभकषायं च शौचतो जयतु ।।१८२।।
उक्किट्ठो जो बोहो णाणं तस्सेव अप्पणो चित्तं
जो धरइ मुणी णिच्चं पायच्छित्तं हवे तस्स ।।११६।।
उत्कृष्टो यो बोधो ज्ञानं तस्यैवात्मनश्चित्तम्
यो धरति मुनिर्नित्यं प्रायश्चित्तं भवेत्तस्य ।।११६।।
अत्र शुद्धज्ञानस्वीकारवतः प्रायश्चित्तमित्युक्त म्
उत्कृष्टो यो विशिष्टधर्मः स हि परमबोधः इत्यर्थः बोधो ज्ञानं

चित्तमित्यनर्थान्तरम् अत एव तस्यैव परमधर्मिणो जीवस्य प्रायः प्रकर्षेण चित्तं यः परमसंयमी नित्यं ताद्रशं चित्तं धत्ते, तस्य खलु निश्चयप्रायश्चित्तं भवतीति

[श्लोकार्थ : ] क्रोधकषायको क्षमासे, मानकषायको मार्दवसे ही, मायाको आर्जवकी प्राप्तिसे और लोभकषायको शौचसे (सन्तोषसे) जीतो १८२

गाथा : ११६ अन्वयार्थ :[तस्य एव आत्मनः ] उसी (अनन्तधर्मवाले) आत्माका [यः ] जो [उत्कृष्टः बोधः ] उत्कृष्ट बोध, [ज्ञानम् ] ज्ञान अथवा [चित्तम् ] चित्त उसे [यः मुनिः ] जो मुनि [नित्यं धरति ] नित्य धारण करता है, [तस्य ] उसे [प्रायश्चित्तम् भवेत् ] प्रायश्चित्त है

टीका :यहाँ, ‘शुद्ध ज्ञानके स्वीकारवालेको प्रायश्चित्त है’ ऐसा कहा है

उत्कृष्ट ऐसा जो विशिष्ट धर्म वह वास्तवमें परम बोध हैऐसा अर्थ है बोध, ज्ञान और चित्त भिन्न पदार्थ नहीं हैं ऐसा होनेसे ही उसी परमधर्मी जीवको प्रायः चित्त है अर्थात् प्रकृष्टरूपसे चित्त (ज्ञान) है जो परमसंयमी ऐसे चित्तको नित्य धारण करता है, उसे वास्तवमें निश्चयप्रायश्चित्त है

उत्कृष्ट निज अवबोध अथवा ज्ञान अथवा चित्तको
धारे मुनि जो पालता वह नित्य प्रायश्चित्तको ।।११६।।