किल जडतया लोलो वालव्रजेऽविचलं स्थितः ।
परिणततृषां प्रायेणैवंविधा हि विपत्तयः ।।’’
तथा हि — बाहुबलिके दाहिने हाथमें आकर स्थिर हो गया ।) अपने दाहिने हाथमें स्थित (उस) चक्रको छोड़कर जब बाहुबलिने प्रव्रज्या ली तभी (तुरन्त ही) वे उस कारण मुक्ति प्राप्त कर लेते, परन्तु वे (मानके कारण मुक्ति प्राप्त न करके) वास्तवमें दीर्घ काल तक प्रसिद्ध (मानकृत) क्लेशको प्राप्त हुए । थोड़ा भी मान महा हानि करता है !’’
‘‘[श्लोकार्थ : — ] जिसमें ( – जिस गड्ढेमें) छिपे हुए क्रोधादिक भयंकर सर्प देखे नहीं जा सकते ऐसा जो मिथ्यात्वरूपी घोर अंधकारवाला मायारूपी महान गड्ढा उससे डरते रहना योग्य है ।’’
‘‘[श्लोकार्थ : — ] ❃वनचरके भयसे भागती हुई सुरा गायकी पूँछ दैवयोगसे बेलमें उलझ जाने पर जड़ताके कारण बालोंके गुच्छेके प्रति लोलुपतावाली वह गाय (अपने सुन्दर बालोंको न टूटने देनेके लोभमें) वहाँ अविचलरूपसे खड़ी रह गई, और अरेरे ! उस गायको वनचर द्वारा प्राणसे भी विमुक्त कर दिया गया ! (अर्थात् उस गायने बालोंके लोभमें प्राण भी गँवा दिये !) जिन्हें तृष्णा परिणमित हुई है उन्हें प्रायः ऐसी ही विपत्तियाँ आती हैं ।’’
और (इस ११५ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : — ❃ वनचर = वनमें रहनेवाले, भील आदि मनुष्य अथवा शेर आदि जङ्गली पशु ।