Niyamsar (Hindi).

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२३२ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
परमब्रह्मरूपिणो ममापकारहानिरिति परमसमरसीभावस्थितिरुत्तमा क्षमा आभिः क्षमाभिः
क्रोधकषायं जित्वा, मानकषायं मार्दवेन च, मायाकषायं चार्जवेण, परमतत्त्वलाभसन्तोषेण
लोभकषायं चेति
तथा चोक्तं श्रीगुणभद्रस्वामिभिः
(वसंततिलका)
‘‘चित्तस्थमप्यनवबुद्धय हरेण जाडयात
क्रुद्ध्वा बहिः किमपि दग्धमनङ्गबुद्धया
घोरामवाप स हि तेन कृतामवस्थां
क्रोधोदयाद्भवति कस्य न कार्यहानिः
।।’’
(वसंततिलका)
‘‘चक्रं विहाय निजदक्षिणबाहुसंस्थं
यत्प्राव्रजन्ननु तदैव स तेन मुच्येत
क्लेशं तमाप किल बाहुबली चिराय
मानो मनागपि हतिं महतीं करोति
।।’’

होनेसे अमूर्त परमब्रह्मरूप ऐसे मुझे हानि नहीं होतीऐसा समझकर परम समरसीभावमें स्थित रहना वह उत्तम क्षमा है इन (तीन) क्षमाओं द्वारा क्रोधकषायको जीतकर, मार्दव द्वारा मानकषायको, आर्जव द्वारा मायाकषायको तथा परमतत्त्वकी प्राप्तिरूप सन्तोषसे लोभकषायको (योगी) जीतते हैं

इसीप्रकार (आचार्यवर) श्री गुणभद्रस्वामीने (आत्मानुशासनमें २१६, २१७, २२१ तथा २२३वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :

[श्लोकार्थ : ] कामदेव (अपने) चित्तमें रहने पर भी (अपनी) जड़ताके कारण उसे न पहिचानकर, शंकरने क्रोधी होकर बाह्यमें किसीको कामदेव समझकर उसे जला दिया (चित्तमें रहनेवाला कामदेव तो जीवित होनेके कारण) उसने की हुई घोर अवस्थाको (कामविह्वल दशाको) शंकर प्राप्त हुए क्रोधके उदयसे (क्रोध उत्पन्न होनेसे) किसे कार्यहानि नहीं होती ?’’

‘‘[श्लोकार्थ : ] (युद्धमें भरतने बाहुबलि पर चक्र छोड़ा परन्तु वह चक्र मार्दव = कोमलता; नरमाई; निर्मानता आर्जव = ऋजुता; सरलता