लोभकषायं चेति ।
क्रोधोदयाद्भवति कस्य न कार्यहानिः ।।’’
यत्प्राव्रजन्ननु तदैव स तेन मुच्येत् ।
मानो मनागपि हतिं महतीं करोति ।।’’
होनेसे अमूर्त परमब्रह्मरूप ऐसे मुझे हानि नहीं होती — ऐसा समझकर परम समरसीभावमें स्थित रहना वह उत्तम क्षमा है । इन (तीन) क्षमाओं द्वारा क्रोधकषायको जीतकर, १मार्दव द्वारा मानकषायको, २आर्जव द्वारा मायाकषायको तथा परमतत्त्वकी प्राप्तिरूप सन्तोषसे लोभकषायको (योगी) जीतते हैं ।
इसीप्रकार (आचार्यवर) श्री गुणभद्रस्वामीने (आत्मानुशासनमें २१६, २१७, २२१ तथा २२३वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
[श्लोकार्थ : — ] कामदेव (अपने) चित्तमें रहने पर भी (अपनी) जड़ताके कारण उसे न पहिचानकर, शंकरने क्रोधी होकर बाह्यमें किसीको कामदेव समझकर उसे जला दिया । (चित्तमें रहनेवाला कामदेव तो जीवित होनेके कारण) उसने की हुई घोर अवस्थाको ( – कामविह्वल दशाको) शंकर प्राप्त हुए । क्रोधके उदयसे ( – क्रोध उत्पन्न होनेसे) किसे कार्यहानि नहीं होती ?’’
‘‘[श्लोकार्थ : — ] (युद्धमें भरतने बाहुबलि पर चक्र छोड़ा परन्तु वह चक्र १ – मार्दव = कोमलता; नरमाई; निर्मानता । २ – आर्जव = ऋजुता; सरलता ।