कायोद्भूतप्रबलतरसत्कर्ममुक्ते : सकाशात् ।
स्वात्मध्यानादपि च नियतं स्वात्मनिष्ठापराणाम् ।।१९५।।
तदखिलमपि नित्यं संत्यजाम्यात्मशक्त्या ।
स्फु टितनिजविलासं सर्वदा चेतयेहम् ।।१९७।।
[श्लोकार्थ : — ] जो निरंतर स्वात्मनिष्ठापरायण ( – निज आत्मामें लीन) हैं उन संयमियोंको, कायासे उत्पन्न होनेवाले अति प्रबल कर्मोंके ( – काया सम्बन्धी प्रबल क्रियाओंके) त्यागके कारण, वाणीके जल्पसमूहकी विरतिके कारण और मानसिक भावोंकी (विकल्पोंकी) निवृत्तिके कारण, तथा निज आत्माके ध्यानके कारण, निश्चयसे सतत कायोत्सर्ग है ।१९५।
[श्लोकार्थ : — ] सहज तेजःपुंजमें निमग्न ऐसा वह प्रकाशमान सहज परम तत्त्व जयवन्त है — कि जिसने मोहांधकारको दूर किया है (अर्थात् जो मोहांधकार रहित है ), जो सहज परम दृष्टिसे परिपूर्ण है और जो वृथा - उत्पन्न भवभवके परितापोंसे तथा कल्पनाओंसे मुक्त है ।१९६।
[श्लोकार्थ : — ] अल्प ( – तुच्छ) और कल्पनामात्ररम्य ( – मात्र कल्पनासे ही रमणीय लगनेवाला) ऐसा जो भवभवका सुख वह सब मैं आत्मशक्तिसे नित्य सम्यक् प्रकारसे छोड़ता हूँ; (और) जिसका निज विलास प्रगट हुआ है, जो सहज परम सौख्यवाला है तथा जो चैतन्यचमत्कारमात्र है, उसका ( – उस आत्मतत्त्वका) मैं सर्वदा अनुभवन करता हूँ ।१९७।