समाधिविषयामहो क्षणमहं न जाने पुरा ।
प्रभुत्वगुणशक्ति तः खलु हतोस्मि हा संसृतौ ।।१९८।।
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेव- विरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकारः अष्टमः श्रुतस्कन्धः ।।
[श्लोकार्थ : — ] अहो ! मेरे हृदयमें स्फु रायमान इस निज आत्मगुणसंपदाको — कि जो समाधिका विषय है उसे — मैंने पहले एक क्षण भी नहीं जाना । वास्तवमें, तीन लोकके वैभवके प्रलयके हेतुभूत दुष्कर्मोंकी प्रभुत्वगुणशक्तिसे ( – दुष्ट कर्मोंके प्रभुत्वगुणकी शक्तिसे), अरेरे ! मैं संसारमें मारा गया हूँ ( – हैरान हो गया हूँ) ।१९८।
[श्लोकार्थ : — ] भवोत्पन्न ( – संसारमें उत्पन्न होनेवाले) विषवृक्षके समस्त फलको दुःखका कारण जानकर मैं चैतन्यात्मक आत्मामें उत्पन्न विशुद्धसौख्यका अनुभवन करता हूँ ।१९९।
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियोंके फै लाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागमकी निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें) शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार नामका आठवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।