टीका : — यहाँ (इस गाथामें), समताके बिना द्रव्यलिंगधारी श्रमणाभासको किंचित्
परलोकका कारण नहीं है (अर्थात् किंचित् मोक्षका साधन नहीं है ) ऐसा कहा है ।
केवल द्रव्यलिंगधारी श्रमणाभासको समस्त कर्मकलंकरूप कीचड़से विमुक्त महा
आनन्दके हेतुभूत परमसमताभाव बिना, (१) वनवासमें वसकर वर्षाऋतुमें वृक्षके नीचे
स्थिति करनेसे, ग्रीष्मऋतुमें प्रचंड सूर्यकी किरणोंसे संतप्त पर्वतके शिखरकी शिला पर
बैठनेसे और हेमंतऋतुमें रात्रिमें दिगम्बरदशामें रहनेसे, (२) त्वचा और अस्थिरूप (मात्र
हाड़-चामरूप) हो गये सारे शरीरको क्लेशदायक महा उपवाससे, (३) सदा
अध्ययनपटुतासे (अर्थात् सदा शास्त्रपठन करनेसे), अथवा (४) वचनसम्बन्धी व्यापारकी
निवृत्तिस्वरूप सतत मौनव्रतसे क्या किंचित् भी ❃उपादेय फल है ? (अर्थात् मोक्षके
साधनरूप फल किंचित् भी नहीं है ।)
इसीप्रकार (श्री योगीन्द्रदेवकृत) अमृताशीतिमें (५९वें श्लोक द्वारा) कहा है
कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] पर्वतकी गहन गुफा आदिमें अथवा वनके शून्य प्रदेशमें
अत्र समतामन्तरेण द्रव्यलिङ्गधारिणः श्रमणाभासिनः किमपि परलोककारणं
नास्तीत्युक्त म् ।
सकलकर्मकलंकपंकविनिर्मुक्त महानंदहेतुभूतपरमसमताभावेन विना कान्तारवासावासेन
प्रावृषि वृक्षमूले स्थित्या च ग्रीष्मेऽतितीव्रकरकरसंतप्तपर्वताग्रग्रावनिषण्णतया वा हेमन्ते च
रात्रिमध्ये ह्याशांबरदशाफलेन च, त्वगस्थिभूतसर्वाङ्गक्लेशदायिना महोपवासेन वा,
सदाध्ययनपटुतया च, वाग्विषयव्यापारनिवृत्तिलक्षणेन संततमौनव्रतेन वा किमप्युपादेयं
फलमस्ति केवलद्रव्यलिंगधारिणः श्रमणाभासस्येति ।
तथा चोक्त म् अमृताशीतौ —
(मालिनी)
‘‘गिरिगहनगुहाद्यारण्यशून्यप्रदेश-
स्थितिकरणनिरोधध्यानतीर्थोपसेवा- ।
प्रपठनजपहोमैर्ब्रह्मणो नास्ति सिद्धिः
मृगय तदपरं त्वं भोः प्रकारं गुरुभ्यः ।।’’
❃ उपादेय = चाहने योग्य; प्रशंसा योग्य ।
कहानजैनशास्त्रमाला ]परम-समाधि अधिकार[ २५१