Niyamsar (Hindi). Gatha: 124.

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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
निखिलकरणग्रामागोचरनिरंजननिजपरमतत्त्वाविचलस्थितिरूपं निश्चयशुक्लध्यानम् एभिः
सामग्रीविशेषैः सार्धमखंडाद्वैतपरमचिन्मयमात्मानं यः परमसंयमी नित्यं ध्यायति, तस्य खलु
परमसमाधिर्भवतीति
(अनुष्टुभ्)
निर्विकल्पे समाधौ यो नित्यं तिष्ठति चिन्मये
द्वैताद्वैतविनिर्मुक्त मात्मानं तं नमाम्यहम् ।।२०१।।
किं काहदि वणवासो कायकिलेसो विचित्तउववासो
अज्झयणमोणपहुदी समदारहियस्स समणस्स ।।१२४।।
किं करिष्यति वनवासः कायक्लेशो विचित्रोपवासः
अध्ययनमौनप्रभृतयः समतारहितस्य श्रमणस्य ।।१२४।।
समस्त इन्द्रियसमूहसे अगोचर निरंजन - निज - परमतत्त्वमें अविचल स्थितिरूप (ऐसा जो
ध्यान) वह निश्चयशुक्लध्यान है इन सामग्रीविशेषों सहित (इस उपर्युक्त विशेष आंतरिक
साधनसामग्री सहित) अखण्ड अद्वैत परम चैतन्यमय आत्माको जो परम संयमी नित्य ध्याता
है, उसे वास्तवमें परम समाधि है

[अब इस १२३वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]

[श्लोकार्थ : ] जो सदा चैतन्यमय निर्विकल्प समाधिमें रहता है, उस द्वैताद्वैतविमुक्त (द्वैत-अद्वैतके विकल्पोंसे मुक्त) आत्माको मैं नमन करता हूँ २०१

गाथा : १२४ अन्वयार्थ :[वनवासः ] वनवास, [कायक्लेशः विचित्रोपवासः ] कायक्लेशरूप अनेक प्रकारके उपवास, [अध्ययनमौनप्रभृतयः ] अध्ययन, मौन आदि (कार्य) [समतारहितस्य श्रमणस्य ] समतारहित श्रमणको [किं करिष्यति ] क्या करते हैं (क्या लाभ करते हैं) ?

वनवास, कायाक्लेशरूप अनेक विध उपवाससे
वा अध्ययन मौनादिसे क्या ! साम्यविरहित साधुके ।।१२४।।