Niyamsar (Hindi). Gatha: 123.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]परम-समाधि अधिकार[ २४९
संजमणियमतवेण दु धम्मज्झाणेण सुक्कझाणेण
जो झायइ अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स ।।१२३।।
संयमनियमतपसा तु धर्मध्यानेन शुक्लध्यानेन
यो ध्यायत्यात्मानं परमसमाधिर्भवेत्तस्य ।।१२३।।
इह हि समाधिलक्षणमुक्त म्
संयमः सकलेन्द्रियव्यापारपरित्यागः नियमेन स्वात्माराधनातत्परता आत्मा-

नमात्मन्यात्मना संधत्त इत्यध्यात्मं तपनम् सकलबाह्यक्रियाकांडाडम्बरपरित्यागलक्षणान्तः- क्रियाधिकरणमात्मानं निरवधित्रिकालनिरुपाधिस्वरूपं यो जानाति, तत्परिणतिविशेषः स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मध्यानम् ध्यानध्येयध्यातृतत्फलादिविविधविकल्पनिर्मुक्तान्तर्मुखाकार-

गाथा : १२३ अन्वयार्थ :[संयमनियमतपसा तु ] संयम, नियम और तपसे तथा [धर्मध्यानेन शुक्लध्यानेन ] धर्मध्यान और शुक्लध्यानसे [यः ] जो [आत्मानं ] आत्माको [ध्यायति ] ध्याता है, [तस्य ] उसे [परमसमाधिः ] परम समाधि [भवेत् ] है

टीका :यहाँ (इस गाथामें) समाधिका लक्षण (अर्थात् स्वरूप) कहा है

समस्त इन्द्रियोंके व्यापारका परित्याग सो संयम है निज आत्माकी आराधनामें तत्परता सो नियम है जो आत्माको आत्मामें आत्मासे धारण कर रखता हैटिका रखता हैजोड़ रखता है वह अध्यात्म है और वह अध्यात्म सो तप है समस्त बाह्यक्रियाकांडके आडम्बरका परित्याग जिसका लक्षण है ऐसी अंतःक्रियाके अधिकरणभूत आत्माको कि जिसका स्वरूप अवधि रहित तीनों काल (अनादि कालसे अनन्त काल तक) निरुपाधिक है उसेजो जीव जानता है, उस जीवकी परिणतिविशेष वह स्वात्माश्रित निश्चयधर्मध्यान है ध्यान - ध्येय - ध्याता, ध्यानका फल आदिके विविध विकल्पोंसे विमुक्त (अर्थात् ऐसे विकल्पोंसे रहित), अंतर्मुखाकार (अर्थात् अंतर्मुख जिसका स्वरूप है ऐसा), अधिकरण = आधार (अंतरंग क्रियाका आधार आत्मा है )

संयम नियम तपसे तथा रे धर्म - शुक्ल सुध्यानसे
ध्यावे निजात्मा जो परम होती समाधि है उसे ।।१२३।।