Niyamsar (Hindi).

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२४८ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद
जिनयोगीश्वरेणापि परमार्थतः प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तवाग्विषयव्यापारो न कर्तव्यः अत एव
वचनरचनां परित्यज्य सकलकर्मकलंकपंकविनिर्मुक्त प्रध्वस्तभावकर्मात्मकपरमवीतरागभावेन
त्रिकालनिरावरणनित्यशुद्धकारणपरमात्मानं स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मध्यानेन टंकोत्कीर्णज्ञायकैक-
स्वरूपनिरतपरमशुक्लध्यानेन च यः परमवीतरागतपश्चरणनिरतः निरुपरागसंयतः ध्यायति,
तस्य खलु द्रव्यभावकर्मवरूथिनीलुंटाकस्य परमसमाधिर्भवतीति
(वंशस्थ)
समाधिना केनचिदुत्तमात्मनां
हृदि स्फु रन्तीं समतानुयायिनीम्
यावन्न विद्मः सहजात्मसंपदं
न मा
द्रशां या विषया विदामहि ।।२००।।
जिनयोगीश्वरको भी करनेयोग्य है परमार्थसे प्रशस्त - अप्रशस्त समस्त वचनसम्बन्धी व्यापार
करनेयोग्य नहीं है ऐसा होनेसे ही, वचनरचना परित्यागकर जो समस्त कर्मकलंकरूप
कीचड़से विमुक्त है और जिसमेंसे भावकर्म नष्ट हुए हैं ऐसे भावसेपरम वीतराग
भावसेत्रिकाल - निरावरण नित्य-शुद्ध कारणपरमात्माको स्वात्माश्रित निश्चयधर्मध्यानसे
तथा टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वरूपमें लीन परमशुक्लध्यानसे जो परमवीतराग तपश्चरणमें
लीन, निरुपराग (निर्विकार) संयमी ध्याता है, उस द्रव्यकर्म
- भावकर्मकी सेनाको लूटनेवाले
संयमीको वास्तवमें परम समाधि है

[अब इस १२२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं : ]

[श्लोकार्थ : ] किसी ऐसी (अवर्णनीय, परम) समाधि द्वारा उत्तम आत्माओंके हृदयमें स्फु रित होनेवाली, समताकी अनुयायिनी सहज आत्मसम्पदाका जबतक हम अनुभव नहीं करते, तबतक हमारे जैसोंका जो विषय है उसका हम अनुभवन नहीं करते २०० अनुयायिनी = अनुगामिनी; साथ-साथ रहनेवाली; पीछे-पीछे आनेवाली (सहज आत्मसम्पदा समाधिकी

अनुयायिनी है ।)

सहज आत्मसम्पदा मुनियोंका विषय है