(अनुष्टुभ्)
वाचं वाचंयमीन्द्राणां वक्त्रवारिजवाहनाम् ।
वन्दे नयद्वयायत्तवाच्यसर्वस्वपद्धतिम् ।।२।।
(शालिनी)
सिद्धान्तोद्घश्रीधवं सिद्धसेनं
तर्काब्जार्कं भट्टपूर्वाकलंकम् ।
शब्दाब्धीन्दुं पूज्यपादं च वन्दे
तद्विद्याढयं वीरनन्दिं व्रतीन्द्रम् ।।३।।
२ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
जिसने भवोंको जीता है उसकी मैं वन्दना करता हूँ — उसे प्रकाशमान ऐसे श्री जिन कहो,
१सुगत कहो, २गिरिधर कहो, ३वागीश्वर कहो या ४शिव कहो ।१।
[श्लोेकार्थ : — ] ५वाचंयमीन्द्रोंका ( – जिनदेवोंका) मुखकमल जिसका वाहन है
और दो नयोंके आश्रयसे सर्वस्व कहनेकी जिसकी पद्धति है उस वाणीको
( – जिनभगवन्तोंकी स्याद्वादमुद्रित वाणीको) मैं वन्दन करता हूँ ।२।
[श्लोेकार्थ : — ] उत्तम सिद्धान्तरूपी श्रीके पति सिद्धसेन मुनीन्द्रको, ६तर्क कमलके
सूर्य भट्ट अकलंक मुनीन्द्रको, ७शब्दसिन्धुके चन्द्र पूज्यपाद मुनीन्द्रको और तद्विद्यासे
( – सिद्धान्तादि तीनोंके ज्ञानसे) समृद्ध वीरनन्दि मुनीन्द्रको मैं वन्दन करता हूँ ।३।
१बुद्धको सुगत कहा जाता है । सुगत अर्थात् (१) शोभनीकताको प्राप्त, अथवा (२) सम्पूर्णताको प्राप्त ।
श्री जिनभगवान (१) मोहरागद्वेषका अभाव होनेके कारण शोभनीकताको प्राप्त हैं, और
(२) केवलज्ञानादिको प्राप्त कर लिया है इसलिये सम्पूर्णताको प्राप्त हैं; इसलिये उन्हें यहाँ सुगत कहा है ।
२कृष्णको गिरिधर (अर्थात् पर्वतको धारण कर रखनेवाले) कहा जाता है । श्री जिनभगवान अनंतवीर्यवान
होनेसे उन्हें यहाँ गिरिधर कहा है ।
३ब्रह्माको अथवा बृहस्पतिको वागीश्वर (अर्थात् वाणीके अधिपति) कहा जाता है । श्री जिनभगवान
दिव्यवाणीके प्रकाशक होनेसे उन्हें यहाँ वागीश्वर कहा है ।
४महेशको (शंकरको) शिव कहा जाता है । श्री जिनभगवान कल्याणस्वरूप होनेसे उन्हें यहाँ शिव
कहा गया है ।
५वाचंयमीन्द्र = मुनियोंमें प्रधान अर्थात् जिनदेव; मौन सेवन करनेवालोंमें श्रेष्ठ अर्थात् जिनदेव; वाक्-
संयमियोंमें इन्द्र समान अर्थात् जिनदेव [वाचंयमी = मुनि; मौन सेवन करनेवाले; वाणीके संयमी ।]
६तर्ककमलके सूर्य = तर्करूपी कमलको प्रफु ल्लित करनेमें सूर्य समान
७शब्दसिन्धुके चन्द्र = शब्दरूपी समुद्रको उछालनेमें चन्द्र समान