सामायिकव्रतं भवतीति ।
धर्मध्यानेप्यनघपरमानन्दतत्त्वाश्रितेऽस्मिन् ।
भेदाभावात् किमपि भविनां वाङ्मनोमार्गदूरम् ।।२१९।।
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ परमसमाध्यधिकारो नवमः श्रुतस्कन्धः ।। वास्तवमें जिनेश्वरके शासनसे निष्पन्न हुआ, नित्यशुद्ध, त्रिगुप्ति द्वारा गुप्त ऐसी परम समाधि जिसका लक्षण है ऐसा, शाश्वत सामायिकव्रत है ।
[अब इस परम - समाधि अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] इस अनघ (निर्दोष) परमानन्दमय तत्त्वके आश्रित धर्मध्यानमें और शुक्लध्यानमें जिसकी बुद्धि परिणमित हुई है ऐसा शुद्धरत्नत्रयात्मक जीव ऐसे किसी विशाल तत्त्वको अत्यन्त प्राप्त करता है कि जिसमेंसे ( – जिस तत्त्वमेंसे) महा दुःखसमूह नष्ट हुआ है और जो (तत्त्व) भेदोंके अभावके कारण जीवोंको वचन तथा मनके मार्गसे दूर है ।२१९।
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इंद्रियोंके फै लाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागमकी निर्ग्रंथ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें) परम-समाधि अधिकार नामका नववाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।