Niyamsar (Hindi). Adhikar-10 : Param Bhakti Adhikar Gatha: 134.

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अब भक्ति अधिकार कहा जाता है
गाथा : १३४ अन्वयार्थ :[यः श्रावकः श्रमणः ] जो श्रावक अथवा श्रमण
[सम्यक्त्वज्ञानचरणेषु ] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी [भक्तिं ] भक्ति
[करोति ] करता है, [तस्य तु ] उसे [निर्वृत्तिभक्तिः भवति ] निर्वृत्तिभक्ति (निर्वाणकी
भक्ति) है [इति ] ऐसा [जिनैः प्रज्ञप्तम् ] जिनोंने कहा है
टीका :यह, रत्नत्रयके स्वरूपका कथन है
चतुर्गति संसारमें परिभ्रमणके कारणभूत तीव्र मिथ्यात्वकर्मकी प्रकृतिसे प्रतिपक्ष
१०
परम-भक्ति अधिकार
अथ संप्रति हि भक्त्यधिकार उच्यते
सम्मत्तणाणचरणे जो भत्तिं कुणइ सावगो समणो
तस्स दु णिव्वुदिभत्ती होदि त्ति जिणेहि पण्णत्तं ।।१३४।।
सम्यक्त्वज्ञानचरणेषु यो भक्तिं करोति श्रावकः श्रमणः
तस्य तु निर्वृतिभक्ति र्भवतीति जिनैः प्रज्ञप्तम् ।।१३४।।
रत्नत्रयस्वरूपाख्यानमेतत
चतुर्गतिसंसारपरिभ्रमणकारणतीव्रमिथ्यात्वकर्मप्रकृतिप्रतिपक्षनिजपरमात्मतत्त्वसम्यक् -
श्रद्धानावबोधाचरणात्मकेषु शुद्धरत्नत्रयपरिणामेषु भजनं भक्ति राराधनेत्यर्थः एकादशपदेषु
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सम्यक्त्व-ज्ञान-चारित्रकी श्रावक श्रमण भक्ति करे
उसको कहें निर्वाण - भक्ति परम जिनवर देव रे ।।१३४।।