Niyamsar (Hindi).

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परम-भक्ति अधिकार[ २६९
श्रावकेषु जघन्याः षट्, मध्यमास्त्रयः, उत्तमौ द्वौ च, एते सर्वे शुद्धरत्नत्रयभक्तिं कुर्वन्ति
अथ भवभयभीरवः परमनैष्कर्म्यवृत्तयः परमतपोधनाश्च रत्नत्रयभक्तिं कुर्वन्ति तेषां परम-
श्रावकाणां परमतपोधनानां च जिनोत्तमैः प्रज्ञप्ता निर्वृतिभक्ति रपुनर्भवपुरंध्रिकासेवा भवतीति
(मंदाक्रांता)
सम्यक्त्वेऽस्मिन् भवभयहरे शुद्धबोधे चरित्रे
भक्तिं कुर्यादनिशमतुलां यो भवच्छेददक्षाम्
कामक्रोधाद्यखिलदुरघव्रातनिर्मुक्त चेताः
भक्तो भक्तो भवति सततं श्रावकः संयमी वा
।।२२०।।
(विरुद्ध) निज परमात्मतत्त्वके सम्यक् श्रद्धान - अवबोध - आचरणस्वरूपशुद्धरत्नत्रय -
परिणामोंका जो भजन वह भक्ति है; आराधना ऐसा उसका अर्थ है एकादशपदी
श्रावकोंमें जघन्य छह हैं, मध्यम तीन हैं तथा उत्तम दो हैं यह सब शुद्धरत्नत्रयकी
भक्ति करते हैं तथा भवभयभीरु, परमनैष्कर्म्यवृत्तिवाले (परम निष्कर्म परिणतिवाले)
परम तपोधन भी (शुद्ध) रत्नत्रयकी भक्ति करते हैं उन परम श्रावकों तथा
परम तपोधनोंको जिनवरोंकी कही हुई निर्वाणभक्तिअपुनर्भवरूपी स्त्रीकी सेवा
वर्तती है

[अब इस १३४वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं : ]

[श्लोकार्थ : ] जो जीव भवभयके हरनेवाले इस सम्यक्त्वकी, शुद्ध ज्ञानकी और चारित्रकी भवछेदक अतुल भक्ति निरन्तर करता है, वह कामक्रोधादि समस्त दुष्ट पापसमूहसे मुक्त चित्तवाला जीवश्रावक हो अथवा संयमी होनिरन्तर भक्त है, भक्त है २२० एकादशपदी = जिनके ग्यारह पद (गुणानुसार भूमिकाएँ) हैं ऐसे [श्रावकोंके निम्नानुसार ग्यारह पद

हैं : (१) दर्शन, (२) व्रत, (३) सामायिक, (४) प्रोषधोपवास, (५) सचित्तत्याग, (६) रात्रिभोजन-
त्याग, (७) ब्रह्मचर्य, (८) आरम्भत्याग, (९) परिग्रहत्याग, (१०) अनुमतित्याग और (११) उद्दिष्टाहार-
त्याग
उनमें छठवें पद तक (छठवीं प्रतिमा तक) जघन्य श्रावक हैं, नौवें पद तक मध्यम श्रावक
हैं और दसवें तथा ग्यारहवें पद पर हों वे उत्तम श्रावक हैं यह सब पद सम्यक्त्वपूर्वक, हठ रहित
सहज दशाके हैं यह ध्यानमें रखने योग्य हैं ]