परिणत्या सम्यगाराध्य सिद्धा जातास्तेषां केवलज्ञानादिशुद्धगुणभेदं ज्ञात्वा निर्वाणपरंपराहेतुभूतां परमभक्ति मासन्नभव्यः करोति, तस्य मुमुक्षोर्व्यवहारनयेन निर्वृतिभक्ति र्भवतीति ।
गाथा : १३५ अन्वयार्थ : — [यः ] जो जीव [मोक्षगतपुरुषाणाम् ] मोक्षगत पुरुषोंका [गुणभेदं ] गुणभेद [ज्ञात्वा ] जानकर [तेषाम् अपि ] उनकी भी [परमभक्तिं ] परम भक्ति [करोति ] करता है, [व्यवहारनयेन ] उस जीवको व्यवहारनयसे [परिकथितम् ] निर्वाणभक्ति कही है ।
जो पुराण पुरुष समस्तकर्मक्षयके उपायके हेतुभूत कारणपरमात्माकी अभेद - अनुपचार - रत्नत्रयपरिणतिसे सम्यक्रूपसे आराधना करके सिद्ध हुए उनके केवलज्ञानादि शुद्ध गुणोंके भेदको जानकर निर्वाणकी परम्पराहेतुभूत ऐसी परम भक्ति जो आसन्नभव्य जीव करता है, उस मुमुक्षुको व्यवहारनयसे निर्वाणभक्ति है ।
[अब इस १३५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज छह श्लोक कहते हैं : ]
करता, वही व्यवहारसे निर्वाणभक्ति वेद रे ।।१३५।।