[श्लोकार्थ : — ] जिन्होंने कर्मसमूहको खिरा दिया है, जो सिद्धिवधूके (मुक्तिरूपी
स्त्रीके) पति हैं, जिन्होंने अष्ट गुणरूप ऐश्वर्यको संप्राप्त किया है तथा जो कल्याणके धाम
हैं, उन सिद्धोंको मैं नित्य वंदन करता हूँ ।२२१।
[श्लोकार्थ : — ] इसप्रकार (सिद्धभगवन्तोंकी भक्तिको) व्यवहारनयसे
निर्वाणभक्ति जिनवरोंने कहा है; निश्चय - निर्वाणभक्ति रत्नत्रयभक्तिको कहा है ।२२२।
[श्लोकार्थ : — ] आचार्योंने सिद्धत्वको निःशेष (समस्त) दोषसे दूर,
केवलज्ञानादि शुद्ध गुणोंका धाम और शुद्धोपयोगका फल कहा है ।२२३।
[श्लोकार्थ : — ] जो लोकाग्रमें वास करते हैं, जो भवभवके क्लेशरूपी समुद्रके
पारको प्राप्त हुए हैं, जो निर्वाणवधूके पुष्ट स्तनके आलिंगनसे उत्पन्न सौख्यकी खान हैं तथा
जो शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न कैवल्यसम्पदाके ( – मोक्षसम्पदाके) महा गुणोंवाले हैं, उन
पापाटवीपावक ( – पापरूपी वनको जलानेमें अग्नि समान) सिद्धोंको मैं प्रतिदिन नमन
करता हूँ ।२२४।
(अनुष्टुभ्)
उद्धूतकर्मसंदोहान् सिद्धान् सिद्धिवधूधवान् ।
संप्राप्ताष्टगुणैश्वर्यान् नित्यं वन्दे शिवालयान् ।।२२१।।
(आर्या)
व्यवहारनयस्येत्थं निर्वृतिभक्ति र्जिनोत्तमैः प्रोक्ता ।
निश्चयनिर्वृतिभक्ती रत्नत्रयभक्ति रित्युक्ता ।।२२२।।
(आर्या)
निःशेषदोषदूरं केवलबोधादिशुद्धगुणनिलयं ।
शुद्धोपयोगफलमिति सिद्धत्वं प्राहुराचार्याः ।।२२३।।
(शार्दूलविक्रीडित)
ये लोकाग्रनिवासिनो भवभवक्लेशार्णवान्तं गता
ये निर्वाणवधूटिकास्तनभराश्लेषोत्थसौख्याकराः ।
ये शुद्धात्मविभावनोद्भवमहाकैवल्यसंपद्गुणाः
तान् सिद्धानभिनौम्यहं प्रतिदिनं पापाटवीपावकान् ।।२२४।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]परम-भक्ति अधिकार[ २७१