मुक्ति श्रीवनितामुखाम्बुजरवीन् स्वाधीनसौख्यार्णवान् ।
नित्यान् तान् शरणं व्रजामि सततं पापाटवीपावकान् ।।२२५।।
योग्याः सदा शिवमयाः प्रवराः प्रसिद्धाः ।
पंकेरुहोरुमकरंदमधुव्रताः स्युः ।।२२६।।
[श्लोकार्थ : — ] जो तीन लोकके अग्रभागमें निवास करते हैं, जो गुणमें बड़े हैं, जो ज्ञेयरूपी महासागरके पारको प्राप्त हुए हैं, जो मुक्तिलक्ष्मीरूपी स्त्रीके मुखकमलके सूर्य हैं, जो स्वाधीन सुखके सागर हैं, जिन्होंने अष्ट गुणोंको सिद्ध ( – प्राप्त) किया है, जो भवका नाश करनेवाले हैं तथा जिन्होंने आठ कर्मोंके समूहको नष्ट किया है, उन पापाटवीपावक ( – पापरूपी अटवीको जलानेमें अग्नि समान) नित्य (अविनाशी) सिद्धभगवन्तोंकी मैं निरन्तर शरण ग्रहण क रता हूँ । २२५ ।
[श्लोकार्थ : — ] जो मनुष्योंके तथा देवोंके समूहकी परोक्ष भक्तिके योग्य हैं, जो सदा शिवमय हैं, जो श्रेष्ठ हैं तथा जो प्रसिद्ध हैं, वे सिद्धभगवन्त सुसिद्धिरूपी रमणीके रमणीय मुखकमलके महा ❃
अनुभव करते हैं ) ।२२६। ❃ मकरन्द = फू लका पराग, फू लका रस, फू लका केसर ।