पीयूषपानाभिमुखो जीवः स्वात्मानं संस्थाप्यापि च करोति निर्वृतेर्मुक्त्यङ्गनायाः चरणनलिने परमां भक्तिं, तेन कारणेन स भव्यो भक्ति गुणेन निरावरणसहजज्ञानगुणत्वादसहायगुणात्मकं निजात्मानं प्राप्नोति ।
आत्मा ह्यात्मानमात्मन्यविचलितमहाशुद्धरत्नत्रयेऽस्मिन् नित्ये निर्मुक्ति हेतौ निरुपमसहजज्ञानद्रक्शीलरूपे ।
गाथा : १३६ अन्वयार्थ : — [मोक्षपथे ] मोक्षमार्गमें [आत्मानं ] (अपने) आत्माको [संस्थाप्य च ] सम्यक् प्रकारसे स्थापित करके [निर्वृत्तेः ] निर्वृत्तिकी (निर्वाणकी) [भक्तिम् ] भक्ति [करोति ] करता है, [तेन तु ] उससे [जीवः ] जीव [असहायगुणं ] १असहायगुणवाले [निजात्मानम् ] निज आत्माको [प्राप्नोति ] प्राप्त करता है ।
निरंजन निज परमात्माका आनन्दामृत पान करनेमें अभिमुख जीव भेदकल्पनानिरपेक्ष निरुपचार - रत्नत्रयात्मक २निरुपराग मोक्षमार्गमें अपने आत्माको सम्यक् प्रकारसे स्थापित करके निर्वृतिके — मुक्तिरूपी स्त्रीके — चरणकमलकी परम भक्ति करता है, उस कारणसे वह भव्य जीव भक्तिगुण द्वारा निज आत्माको — कि जो निरावरण सहज ज्ञानगुणवाला होनेसे असहायगुणात्मक है उसे — प्राप्त करता है ।
[अब इस १३६वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] इस अविचलित - महाशुद्ध - रत्नत्रयवाले, मुक्तिके हेतुभूत १ – असहायगुणवाला = जिसे किसीकी सहायता नहीं है ऐसे गुणवाला । [आत्मा स्वतःसिद्ध सहज स्वतंत्र
२ – निरुपराग = उपराग रहित; निर्विकार; निर्मल; शुद्ध ।