प्राप्नोत्युच्चैरयं यं विगलितविपदं सिद्धिसीमन्तिनीशः ।।२२७।।
निरुपम – सहज – ज्ञानदर्शनचारित्ररूप, नित्य आत्मामें आत्माको वास्तवमें सम्यक् प्रकारसे स्थापित करके, यह आत्मा चैतन्यचमत्कारकी भक्ति द्वारा ❃निरतिशय घरको — कि जिसमेंसे विपदाएँ दूर हुई हैं तथा जो आनन्दसे भव्य (शोभायमान) है उसे — अत्यन्त प्राप्त करता है अर्थात् सिद्धिरूपी स्त्रीका स्वामी होता है ।२२७।
गाथा : १३७ अन्वयार्थ : — [यः साधु तु ] जो साधु [रागादिपरिहारे आत्मानं युनक्ति ] रागादिके परिहारमें आत्माको लगाता है (अर्थात् आत्मामें आत्माको लगाकर रागादिका त्याग करता है ), [सः ] वह [योगभक्तियुक्तः ] योगभक्तियुक्त (योगकी भक्तिवाला) है; [इतरस्य च ] दूसरेको [योगः ] योग [कथम् ] किसप्रकार [भवेत् ] हो सकता है ?
निरवशेषरूपसे अन्तर्मुखाकार ( – सर्वथा अंतर्मुख जिसका स्वरूप है ऐसी) परम समाधि द्वारा समस्त मोहरागद्वेषादि परभावोंका परिहार होने पर, जो साधु — आसन्नभव्य ❃ निरतिशय = जिससे कोई बढ़कर नहीं है ऐसे; अनुत्तम; श्रेष्ठ; अद्वितीय ।