जीव — निज अखण्ड अद्वैत परमानन्दस्वरूपके साथ निज कारणपरमात्माको जोड़ता है, वह
परम तपोधन ही शुद्धनिश्चय - उपयोगभक्तिवाला है; दूसरेको — बाह्य प्रपंचमें सुखी हो उसे —
योगभक्ति किसप्रकार हो सकती है ?
इसीप्रकार (अन्यत्र श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
[श्लोकार्थ : — ] आत्मप्रयत्नसापेक्ष विशिष्ट जो मनोगति उसका ब्रह्ममें संयोग
होना ( – आत्मप्रयत्नकी अपेक्षावाली विशेष प्रकारकी चित्तपरिणतिका आत्मामें लगना) उसे
योग कहा जाता है ।’’
और (इस १३७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] जो यह आत्मा आत्माको आत्माके साथ निरन्तर जोड़ता है, वह
मुनीश्वर निश्चयसे योगभक्तिवाला है ।२२८।
सति यस्तु साधुरासन्नभव्यजीवः निजेनाखंडाद्वैतपरमानंदस्वरूपेण निजकारणपरमात्मानं
युनक्ति , स परमतपोधन एव शुद्धनिश्चयोपयोगभक्ति युक्त : । इतरस्य बाह्यप्रपंचसुखस्य कथं
योगभक्ति र्भवति ।
तथा चोक्त म् —
(अनुष्टुभ्)
‘‘आत्मप्रयत्नसापेक्षा विशिष्टा या मनोगतिः ।
तस्य ब्रह्मणि संयोगो योग इत्यभिधीयते ।।’’
तथा हि —
(अनुष्टुभ्)
आत्मानमात्मनात्मायं युनक्त्येव निरन्तरम् ।
स योगभक्ति युक्त : स्यान्निश्चयेन मुनीश्वरः ।।२२८।।
सव्ववियप्पाभावे अप्पाणं जो दु जुंजदे साहू ।
सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्स य किह हवे जोगो ।।१३८।।
सब ही विकल्प अभावमें जो साधु जोड़े आतमा ।
है योगकी भक्ति उसे; नहिं अन्यको सम्भावना ।।१३८।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]परम-भक्ति अधिकार[ २७५