Niyamsar (Hindi). Gatha: 138.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]परम-भक्ति अधिकार[ २७५
सति यस्तु साधुरासन्नभव्यजीवः निजेनाखंडाद्वैतपरमानंदस्वरूपेण निजकारणपरमात्मानं
युनक्ति , स परमतपोधन एव शुद्धनिश्चयोपयोगभक्ति युक्त :
इतरस्य बाह्यप्रपंचसुखस्य कथं
योगभक्ति र्भवति
तथा चोक्त म्
(अनुष्टुभ्)
‘‘आत्मप्रयत्नसापेक्षा विशिष्टा या मनोगतिः
तस्य ब्रह्मणि संयोगो योग इत्यभिधीयते ।।’’
तथा हि
(अनुष्टुभ्)
आत्मानमात्मनात्मायं युनक्त्येव निरन्तरम्
स योगभक्ति युक्त : स्यान्निश्चयेन मुनीश्वरः ।।२२८।।
सव्ववियप्पाभावे अप्पाणं जो दु जुंजदे साहू
सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्स य किह हवे जोगो ।।१३८।।
जीवनिज अखण्ड अद्वैत परमानन्दस्वरूपके साथ निज कारणपरमात्माको जोड़ता है, वह
परम तपोधन ही शुद्धनिश्चय - उपयोगभक्तिवाला है; दूसरेकोबाह्य प्रपंचमें सुखी हो उसे
योगभक्ति किसप्रकार हो सकती है ?
इसीप्रकार (अन्यत्र श्लोक द्वारा) कहा है कि :

[श्लोकार्थ : ] आत्मप्रयत्नसापेक्ष विशिष्ट जो मनोगति उसका ब्रह्ममें संयोग होना (आत्मप्रयत्नकी अपेक्षावाली विशेष प्रकारकी चित्तपरिणतिका आत्मामें लगना) उसे योग कहा जाता है ’’

और (इस १३७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) :

[श्लोकार्थ : ] जो यह आत्मा आत्माको आत्माके साथ निरन्तर जोड़ता है, वह मुनीश्वर निश्चयसे योगभक्तिवाला है २२८

सब ही विकल्प अभावमें जो साधु जोड़े आतमा
है योगकी भक्ति उसे; नहिं अन्यको सम्भावना ।।१३८।।