मोहरागद्वेषादिविविधविकल्पाभावे परमसमरसीभावेन निःशेषतोऽन्तर्मुखनिजकारणसमय- सारस्वरूपमत्यासन्नभव्यजीवः सदा युनक्त्येव, तस्य खलु निश्चययोगभक्ति र्नान्येषाम् इति ।
गाथा : १३८ अन्वयार्थ : — [यः साधु तु ] जो साधु [सर्वविकल्पाभावे आत्मानं युनक्ति ] सर्व विकल्पोंके अभावमें आत्माको लगाता है (अर्थात् आत्मामें आत्माको जोड़कर सर्व विकल्पोंका अभाव करता है ), [सः ] वह [योगभक्तियुक्तः ] योगभक्तिवाला है; [इतरस्य च ] दूसरेको [योगः ] योग [कथम् ] किसप्रकार [भवेत् ] हो सकता है ?
अति – अपूर्व १निरुपराग रत्नत्रयात्मक, २निजचिद्विलासलक्षण निर्विकल्प परमसमाधि द्वारा समस्त मोहरागद्वेषादि विविध विकल्पोंका अभाव होने पर, परमसमरसीभावके साथ ३निरवशेषरूपसे अंतर्मुख निज कारणसमयसारस्वरूपको जो अति - आसन्नभव्य जीव सदा जोड़ता ही है, उसे वास्तवमें निश्चययोगभक्ति है; दूसरोंको नहीं ।
[अब इस १३८वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] भेदका अभाव होने पर यह ४अनुत्तम योगभक्ति होती है; उसके द्वारा योगियोंको आत्मलब्धिरूप ऐसी वह ( – प्रसिद्ध) मुक्ति होती है ।२२९। १ – निरुपराग = निर्विकार; शुद्ध । [परम समाधि अति-अपूर्व शुद्ध रत्नत्रयस्वरूप है । ] २ – परम समाधिका लक्षण निज चैतन्यका विलास है । ३ – निरवशेष = परिपूर्ण । [कारणसमयसारस्वरूप परिपूर्ण अन्तर्मुख है । ] ४ – अनुत्तम = जिससे दूसरा कुछ उत्तम नहीं है ऐसी; सर्वश्रेष्ठ ।