Niyamsar (Hindi). Gatha: 139.

< Previous Page   Next Page >


Page 277 of 388
PDF/HTML Page 304 of 415

 

background image
गाथा : १३९ अन्वयार्थ :[विपरीताभिनिवेशं परित्यज्य ] विपरीत अभिनिवेशका
परित्याग करके [यः ] जो [जैनकथिततत्त्वेषु ] जैनकथित तत्त्वोंमें [आत्मानं ] आत्माको
[युनक्ति ] लगाता है, [निजभावः ] उसका निज भाव [सः योगः भवेत् ] वह योग है
टीका :यहाँ, समस्त गुणोंके धारण करनेवाले गणधरदेव आदि जिनमुनिनाथों
द्वारा कहे हुए तत्त्वोंमें विपरीत अभिनिवेश रहित आत्मभाव ही निश्चय - परमयोग है ऐसा
कहा है
अन्य समयके तीर्थनाथ द्वारा कहे हुए (जैन दर्शनके अतिरिक्त अन्य दर्शनके
तीर्थप्रवर्तक द्वारा कहे हुए) विपरीत पदार्थमें अभिनिवेशदुराग्रह ही विपरीत अभिनिवेश
है उसका परित्याग करके जैनों द्वारा कहे हुए तत्त्व निश्चयव्यवहारनयसे जानने योग्य हैं,
सकलजिन ऐसे भगवान तीर्थाधिनाथके चरणकमलके उपजीवक वे जैन हैं; परमार्थसे
गणधरदेव आदि ऐसा उसका अर्थ है उन्होंने (गणधरदेव आदि जैनोंने) कहे हुए जो
विवरीयाभिणिवेसं परिचत्ता जोण्हकहियतच्चेसु
जो जुंजदि अप्पाणं णियभावो सो हवे जोगो ।।१३९।।
विपरीताभिनिवेशं परित्यज्य जैनकथिततत्त्वेषु
यो युनक्ति आत्मानं निजभावः स भवेद्योगः ।।१३९।।
इह हि निखिलगुणधरगणधरदेवप्रभृतिजिनमुनिनाथकथिततत्त्वेषु विपरीताभिनिवेश-
विवर्जितात्मभाव एव निश्चयपरमयोग इत्युक्त :
अपरसमयतीर्थनाथाभिहिते विपरीते पदार्थे ह्यभिनिवेशो दुराग्रह एव विपरीताभि-
निवेशः अमुं परित्यज्य जैनकथिततत्त्वानि निश्चयव्यवहारनयाभ्यां बोद्धव्यानि सकलजिनस्य
भगवतस्तीर्थाधिनाथस्य पादपद्मोपजीविनो जैनाः, परमार्थतो गणधरदेवादय इत्यर्थः
देह सहित होने पर भी तीर्थंकरदेवने रागद्वेष और अज्ञानको सम्पूर्णरूपसे जीता है इसलिये वे
सकलजिन हैं
उपजीवक = सेवा करनेवाले; सेवक; आश्रित; दास
विपरीत आग्रह छोड़कर, श्री जिन कथित जो तत्त्व हैं
जोड़े वहाँ निज आतमा, निजभाव उसका योग है ।।१३९।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]परम-भक्ति अधिकार[ २७७