समस्त जीवादि तत्त्व उनमें जो परम जिनयोगीश्वर निज आत्माको लगाता है, उसका
निजभाव ही परम योग है ।
[अब इस १३९ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] इस दुराग्रहको ( – उपरोक्त विपरीत अभिनिवेशको) छोड़कर,
जैनमुनिनाथोंके ( – गणधरदेवादिक जैन मुनिनाथोंके) मुखारविन्दसे प्रगट हुए, भव्य जनोंके
भवोंका नाश करनेवाले तत्त्वोंमें जो जिनयोगीनाथ (जैन मुनिवर) निज भावको साक्षात्
लगाता है, उसका वह निज भाव सो योग है ।२३०।
गाथा : १४० अन्वयार्थ : — [वृषभादिजिनवरेन्द्राः ] वृषभादि जिनवरेन्द्र
[एवम् ] इसप्रकार [योगवरभक्तिम् ] योगकी उत्तम भक्ति [कृत्वा ] करके
[निर्वृतिसुखम् ] निर्वृतिसुखको [आपन्नाः ] प्राप्त हुए; [तस्मात् ] इसलिये [योगवरभक्तिम् ]
योगकी उत्तम भक्तिको [धारय ] तू धारण कर ।
तैरभिहितानि निखिलजीवादितत्त्वानि तेषु यः परमजिनयोगीश्वरः स्वात्मानं युनक्ति , तस्य च
निजभाव एव परमयोग इति ।
(वसंततिलका)
तत्त्वेषु जैनमुनिनाथमुखारविंद-
व्यक्तेषु भव्यजनताभवघातकेषु ।
त्यक्त्वा दुराग्रहममुं जिनयोगिनाथः
साक्षाद्युनक्ति निजभावमयं स योगः ।।२३०।।
उसहादिजिणवरिंदा एवं काऊण जोगवरभत्तिं ।
णिव्वुदिसुहमावण्णा तम्हा धरु जोगवरभत्तिं ।।१४०।।
वृषभादिजिनवरेन्द्रा एवं कृत्वा योगवरभक्ति म् ।
निर्वृतिसुखमापन्नास्तस्माद्धारय योगवरभक्ति म् ।।१४०।।
२७८ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
वृषभादि जिनवर भक्ति उत्तम इस तरह कर योगकी ।
निर्वृति सुख पाया; अतः कर भक्ति उत्तम योगकी ।।१४०।।