Niyamsar (Hindi). Gatha: 140.

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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
तैरभिहितानि निखिलजीवादितत्त्वानि तेषु यः परमजिनयोगीश्वरः स्वात्मानं युनक्ति , तस्य च
निजभाव एव परमयोग इति
(वसंततिलका)
तत्त्वेषु जैनमुनिनाथमुखारविंद-
व्यक्तेषु भव्यजनताभवघातकेषु
त्यक्त्वा दुराग्रहममुं जिनयोगिनाथः
साक्षाद्युनक्ति निजभावमयं स योगः
।।२३०।।
उसहादिजिणवरिंदा एवं काऊण जोगवरभत्तिं
णिव्वुदिसुहमावण्णा तम्हा धरु जोगवरभत्तिं ।।१४०।।
वृषभादिजिनवरेन्द्रा एवं कृत्वा योगवरभक्ति म्
निर्वृतिसुखमापन्नास्तस्माद्धारय योगवरभक्ति म् ।।१४०।।
समस्त जीवादि तत्त्व उनमें जो परम जिनयोगीश्वर निज आत्माको लगाता है, उसका
निजभाव ही परम योग है

[अब इस १३९ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]

[श्लोकार्थ : ] इस दुराग्रहको (उपरोक्त विपरीत अभिनिवेशको) छोड़कर, जैनमुनिनाथोंके (गणधरदेवादिक जैन मुनिनाथोंके) मुखारविन्दसे प्रगट हुए, भव्य जनोंके भवोंका नाश करनेवाले तत्त्वोंमें जो जिनयोगीनाथ (जैन मुनिवर) निज भावको साक्षात् लगाता है, उसका वह निज भाव सो योग है २३०

गाथा : १४० अन्वयार्थ :[वृषभादिजिनवरेन्द्राः ] वृषभादि जिनवरेन्द्र [एवम् ] इसप्रकार [योगवरभक्तिम् ] योगकी उत्तम भक्ति [कृत्वा ] करके [निर्वृतिसुखम् ] निर्वृतिसुखको [आपन्नाः ] प्राप्त हुए; [तस्मात् ] इसलिये [योगवरभक्तिम् ] योगकी उत्तम भक्तिको [धारय ] तू धारण कर

वृषभादि जिनवर भक्ति उत्तम इस तरह कर योगकी
निर्वृति सुख पाया; अतः कर भक्ति उत्तम योगकी ।।१४०।।