टीका : — यह, भक्ति अधिकारके उपसंहारका कथन है ।
इस भारतवर्षमें पहले श्री नाभिपुत्रसे लेकर श्री वर्धमान तकके चौवीस
तीर्थंकर - परमदेव — सर्वज्ञवीतराग, त्रिलोकवर्ती कीर्तिवाले महादेवाधिदेव परमेश्वर — सब,
यथोक्त प्रकारसे निज आत्माके साथ सम्बन्ध रखनेवाली शुद्धनिश्चययोगकी उत्तम भक्ति
करके, परमनिर्वाणवधूके अति पुष्ट स्तनके गाढ़ आलिंगनसे सर्व आत्मप्रदेशमें अत्यन्त -
आनन्दरूपी परमसुधारसके पूरसे परितृप्त हुए; इसलिये ❃स्फु टितभव्यत्वगुणवाले हे
महाजनो ! तुम निज आत्माको परम वीतराग सुखकी देनेवाली ऐसी वह योगभक्ति
करो ।
[अब इस परम-भक्ति अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए
टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव सात श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] गुणमें जो बड़े हैं, जो त्रिलोकके पुण्यकी राशि हैं (अर्थात्
जिनमें मानों कि तीन लोकके पुण्य एकत्रित हुए हैं ), देवेन्द्रोंके मुकुटकी किनारी पर
प्रकाशमान माणिकपंक्तिसे जो पूजित हैं (अर्थात् जिनके चरणारविन्दमें देवेन्द्रोंके मुकुट
भक्त्यधिकारोपसंहारोपन्यासोयम् ।
अस्मिन् भारते वर्षे पुरा किल श्रीनाभेयादिश्रीवर्धमानचरमाः चतुर्विंशति-
तीर्थकरपरमदेवाः सर्वज्ञवीतरागाः त्रिभुवनवर्तिकीर्तयो महादेवाधिदेवाः परमेश्वराः सर्वे
एवमुक्त प्रकारस्वात्मसंबन्धिनीं शुद्धनिश्चययोगवरभक्तिं कृत्वा परमनिर्वाणवधूटिकापीवरस्तन-
भरगाढोपगूढनिर्भरानंदपरमसुधारसपूरपरितृप्तसर्वात्मप्रदेशा जाताः, ततो यूयं महाजनाः
स्फु टितभव्यत्वगुणास्तां स्वात्मार्थपरमवीतरागसुखप्रदां योगभक्तिं कुरुतेति ।
(शार्दूलविक्रीडित)
नाभेयादिजिनेश्वरान् गुणगुरून् त्रैलोक्यपुण्योत्करान्
श्रीदेवेन्द्रकिरीटकोटिविलसन्माणिक्यमालार्चितान् ।
पौलोमीप्रभृतिप्रसिद्धदिविजाधीशांगनासंहतेः
शक्रेणोद्भवभोगहासविमलान् श्रीकीर्तिनाथान् स्तुवे ।।२३१।।
❃ स्फु टित = प्रकटित; प्रगट हुए; प्रगट ।
कहानजैनशास्त्रमाला ]परम-भक्ति अधिकार[ २७९