झुकते हैं ), (जिनके आगे) शची आदि प्रसिद्ध इन्द्राणियोंके साथमें शक्रेन्द्र द्वारा किये
जानेवाले नृत्य, गान तथा आनन्दसे जो शोभित हैं, और ❃
श्री तथा कीर्तिके जो स्वामी
हैं, उन श्री नाभिपुत्रादि जिनेश्वरोंका मैं स्तवन करता हूँ ।२३१।
[श्लोकार्थ : — ] श्री वृषभसे लेकर श्री वीर तकके जिनपति भी यथोक्त
मार्गसे (पूर्वोक्त प्रकारसे) योगभक्ति करके निर्वाणवधूके सुखको प्राप्त हुए हैं ।२३२।
[श्लोकार्थ : — ] अपुनर्भवसुखकी (मुक्तिसुखकी) सिद्धिके हेतु मैं शुद्ध
योगकी उत्तम भक्ति करता हूँ; संसारकी घोर भीतिसे सर्व जीव नित्य वह उत्तम भक्ति
करो ।२३३।
[श्लोकार्थ : — ] गुरुके सान्निध्यमें निर्मलसुखकारी धर्मको प्राप्त करके, ज्ञान
द्वारा जिसने समस्त मोहकी महिमा नष्ट की है ऐसा मैं, अब रागद्वेषकी परम्परारूपसे
परिणत चित्तको छोड़कर, शुद्ध ध्यान द्वारा समाहित ( – एकाग्र, शांत) किये हुए मनसे
आनन्दात्मक तत्त्वमें स्थित रहता हुआ, परब्रह्ममें (परमात्मामें) लीन होता हूँ ।२३४।
(आर्या)
वृषभादिवीरपश्चिमजिनपतयोप्येवमुक्त मार्गेण ।
कृत्वा तु योगभक्तिं निर्वाणवधूटिकासुखं यान्ति ।।२३२।।
(आर्या)
अपुनर्भवसुखसिद्धयै कुर्वेहं शुद्धयोगवरभक्ति म् ।
संसारघोरभीत्या सर्वे कुर्वन्तु जन्तवो नित्यम् ।।२३३।।
(शार्दूलविक्रीडित)
रागद्वेषपरंपरापरिणतं चेतो विहायाधुना
शुद्धध्यानसमाहितेन मनसानंदात्मतत्त्वस्थितः ।
धर्मं निर्मलशर्मकारिणमहं लब्ध्वा गुरोः सन्निधौ
ज्ञानापास्तसमस्तमोहमहिमा लीये परब्रह्मणि ।।२३४।।
❃ श्री = शोभा; सौन्दर्य; भव्यता ।
२८० ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद