Niyamsar (Hindi).

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२८० ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद
(आर्या)
वृषभादिवीरपश्चिमजिनपतयोप्येवमुक्त मार्गेण
कृत्वा तु योगभक्तिं निर्वाणवधूटिकासुखं यान्ति ।।२३२।।
(आर्या)
अपुनर्भवसुखसिद्धयै कुर्वेहं शुद्धयोगवरभक्ति म्
संसारघोरभीत्या सर्वे कुर्वन्तु जन्तवो नित्यम् ।।२३३।।
(शार्दूलविक्रीडित)
रागद्वेषपरंपरापरिणतं चेतो विहायाधुना
शुद्धध्यानसमाहितेन मनसानंदात्मतत्त्वस्थितः
धर्मं निर्मलशर्मकारिणमहं लब्ध्वा गुरोः सन्निधौ
ज्ञानापास्तसमस्तमोहमहिमा लीये परब्रह्मणि
।।२३४।।
झुकते हैं ), (जिनके आगे) शची आदि प्रसिद्ध इन्द्राणियोंके साथमें शक्रेन्द्र द्वारा किये
जानेवाले नृत्य, गान तथा आनन्दसे जो शोभित हैं, और
श्री तथा कीर्तिके जो स्वामी
हैं, उन श्री नाभिपुत्रादि जिनेश्वरोंका मैं स्तवन करता हूँ २३१

[श्लोकार्थ : ] श्री वृषभसे लेकर श्री वीर तकके जिनपति भी यथोक्त मार्गसे (पूर्वोक्त प्रकारसे) योगभक्ति करके निर्वाणवधूके सुखको प्राप्त हुए हैं २३२

[श्लोकार्थ : ] अपुनर्भवसुखकी (मुक्तिसुखकी) सिद्धिके हेतु मैं शुद्ध योगकी उत्तम भक्ति करता हूँ; संसारकी घोर भीतिसे सर्व जीव नित्य वह उत्तम भक्ति करो २३३

[श्लोकार्थ : ] गुरुके सान्निध्यमें निर्मलसुखकारी धर्मको प्राप्त करके, ज्ञान द्वारा जिसने समस्त मोहकी महिमा नष्ट की है ऐसा मैं, अब रागद्वेषकी परम्परारूपसे परिणत चित्तको छोड़कर, शुद्ध ध्यान द्वारा समाहित (एकाग्र, शांत) किये हुए मनसे आनन्दात्मक तत्त्वमें स्थित रहता हुआ, परब्रह्ममें (परमात्मामें) लीन होता हूँ २३४ श्री = शोभा; सौन्दर्य; भव्यता