संभावयामि तदहं पुनरेकमेकम् ।
मुक्ति स्पृहस्य भवशर्मणि निःस्पृहस्य ।।२३७।।
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ परमभक्त्यधिकारो दशमः श्रुतस्कन्धः ।।
[श्लोकार्थ : — ] इन्द्रियलोलुपता जिनको निवृत्त हुई है और तत्त्वलोलुप (तत्त्वप्राप्तिके लिये अति उत्सुक) जिनका चित्त है, उन्हें सुन्दर - आनन्दझरता उत्तम तत्त्व प्रगट होता है । २३५ ।
[श्लोकार्थ : — ] अति अपूर्व निजात्मजनित भावनासे उत्पन्न होनेवाले सुखके लिये जो यति यत्न करते हैं, वे वास्तवमें जीवन्मुक्त होते हैं, दूसरे नहीं । २३६ ।
[श्लोकार्थ : — ] जो परमात्मतत्त्व (रागद्वेषादि) द्वंद्वमें स्थित नहीं है और अनघ (निर्दोष, मल रहित) है, उस केवल एककी मैं पुनः पुनः सम्भावना (सम्यक् भावना) करता हूँ । मुक्तिकी स्पृहावाले तथा भवसुखके प्रति निःस्पृह ऐसे मुझे इस लोकमें उन अन्यपदार्थसमूहोंसे क्या फल है ? २३७ ।
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियोंके फै लाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागमकी निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें) परम-भक्ति अधिकार नामका दसवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।