अब व्यवहार छह आवश्यकोंसे प्रतिपक्ष शुद्धनिश्चयका (शुद्धनिश्चय - आवश्यकका)
अधिकार कहा जाता है ।
गाथा : १४१ अन्वयार्थ : — [यः अन्यवशः न भवति ] जो अन्यवश नहीं है
(अर्थात् जो जीव अन्यके वश नहीं है ) [तस्य तु आवश्यकम् कर्म भणन्ति ] उसे
आवश्यक कर्म कहते हैं (अर्थात् उस जीवको आवश्यक कर्म है ऐसा परम योगीश्वर कहते
हैं ) । [कर्मविनाशनयोगः ] कर्मका विनाश करनेवाला योग ( – ऐसा जो यह आवश्यक
कर्म) [निर्वृत्तिमार्गः ] वह निर्वाणका मार्ग है [इति प्ररूपितः ] ऐसा कहा है ।
टीका : — यहाँ (इस गाथामें), निरन्तर स्ववशको निश्चय - आवश्यक - कर्म है ऐसा
कहा है ।
— ११ —
निश्चय-परमावश्यक अधिकार
अथ सांप्रतं व्यवहारषडावश्यकप्रतिपक्षशुद्धनिश्चयाधिकार उच्यते ।
जो ण हवदि अण्णवसो तस्स दु कम्मं भणंति आवासं ।
कम्मविणासणजोगो णिव्वुदिमग्गो त्ति पिज्जुत्तो ।।१४१।।
यो न भवत्यन्यवशः तस्य तु कर्म भणन्त्यावश्यकम् ।
कर्मविनाशनयोगो निर्वृतिमार्ग इति प्ररूपितः ।।१४१।।
अत्रानवरतस्ववशस्य निश्चयावश्यककर्म भवतीत्युक्त म् ।
नहिं अन्यवश जो जीव, आवश्यक करम होता उसे ।
यह कर्मनाशक योग ही निर्वाणमार्ग प्रसिद्ध रे ।।१४१।।