यः खलु यथाविधि परमजिनमार्गाचरणकुशलः सर्वदैवान्तर्मुखत्वादनन्यवशो भवति किन्तु साक्षात्स्ववश इत्यर्थः । तस्य किल व्यावहारिकक्रियाप्रपंचपराङ्मुखस्य स्वात्माश्रय- निश्चयधर्मध्यानप्रधानपरमावश्यककर्मास्तीत्यनवरतं परमतपश्चरणनिरतपरमजिनयोगीश्वरा वदन्ति । किं च यस्त्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधिलक्षणपरमयोगः सकलकर्मविनाशहेतुः स एव साक्षान्मोक्षकारणत्वान्निर्वृतिमार्ग इति निरुक्ति र्व्युत्पत्तिरिति ।
नित्यानन्दप्रसरसरसे ज्ञानतत्त्वे निलीय ।
स्फू र्जज्ज्योतिःसहजविलसद्रत्नदीपस्य लक्ष्मीम् ।।’’
विधि अनुसार परमजिनमार्गके आचरणमें कुशल ऐसा जो जीव सदैव अंतर्मुखताके कारण अन्यवश नहीं है परन्तु साक्षात् स्ववश है १ऐसा अर्थ है, उस व्यावहारिक क्रियाप्रपंचसे पराङ्मुख जीवको २स्वात्माश्रित - निश्चयधर्मध्यानप्रधान परम आवश्यक कर्म है ऐसा निरन्तर परमतपश्चरणमें लीन परमजिनयोगीश्वर कहते हैं । और, सकल कर्मके विनाशका हेतु ऐसा जो ३त्रिगुप्तिगुप्त - परमसमाधिलक्षण परम योग वही साक्षात् मोक्षका कारण होनेसे निर्वाणका मार्ग है । ऐसी निरुक्ति अर्थात् व्युत्पत्ति है ।
इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री प्रवचनसारकी तत्त्वदीपिका नामक टीकामें पाँचवें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] इसप्रकार शुद्धोपयोगको प्राप्त करके आत्मा स्वयं धर्म होता हुआ अर्थात् स्वयं धर्मरूपसे परिणमित होता हुआ नित्य आनन्दके फै लावसे सरस (अर्थात् जो शाश्वत आनन्दके फै लावसे रसयुक्त हैं ) ऐसे ज्ञानतत्त्वमें लीन होकर, १ – ‘अन्यवश नहीं है’ इस कथनका ‘साक्षात् स्ववश है’ ऐसा अर्थ है । २ – निज आत्मा जिसका आश्रय है ऐसा निश्चयधर्मध्यान परम आवश्यक कर्ममें प्रधान है । ३ – परम योगका लक्षण तीन गुप्ति द्वारा गुप्त ( – अंतर्मुख) ऐसी परम समाधि है । [परम आवश्यक कर्म