अत्यन्त अविचलपनेके कारण, देदीप्यमान ज्योतिवाले और सहजरूपसे विलसित
( – स्वभावसे ही प्रकाशित) रत्नदीपककी निष्कंप - प्रकाशवाली शोभाको प्राप्त होता है
(अर्थात् रत्नदीपककी भाँति स्वभावसे ही निष्कंपरूपसे अत्यन्त प्रकाशित होता रहता
है — जानता रहता है ) ।’’
और (इस १४१वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] स्ववशतासे उत्पन्न आवश्यक - कर्मस्वरूप यह साक्षात् धर्म
नियमसे (अवश्य) सच्चिदानन्दमूर्ति आत्मामें (सत् - चिद् - आनन्दस्वरूप आत्मामें )
अतिशयरूपसे होता है । ऐसा यह (आत्मस्थित धर्म ), कर्मक्षय करनेमें कुशल ऐसा
निर्वाणका एक मार्ग है । उसीसे मैं शीघ्र किसी ( – अद्भुत ) निर्विकल्प सुखको प्राप्त
करता हूँ ।२३८।
गाथा : १४२ अन्वयार्थ : — [न वशः अवशः ] जो (अन्यके) वश नहीं है
वह ‘अवश’ है [वा ] और [अवशस्य कर्म ] अवशका कर्म वह [आवश्यकम् ]
तथा हि —
(मंदाक्रांता)
आत्मन्युच्चैर्भवति नियतं सच्चिदानन्दमूर्तौ
धर्मः साक्षात् स्ववशजनितावश्यकर्मात्मकोऽयम् ।
सोऽयं कर्मक्षयकरपटुर्निर्वृतेरेकमार्गः
तेनैवाहं किमपि तरसा यामि शं निर्विकल्पम् ।।२३८।।
ण वसो अवसो अवसस्स कम्म वावस्सयं ति बोद्धव्वं ।
जुत्ति त्ति उवाअं ति य णिरवयवो होदि णिज्जुत्ती ।।१४२।।
न वशो अवशः अवशस्य कर्म वाऽवश्यकमिति बोद्धव्यम् ।
युक्ति रिति उपाय इति च निरवयवो भवति निरुक्ति : ।।१४२।।
२८४ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
जो वश नहीं वह ‘अवश’, आवश्यक अवशका कर्म है ।
वह युक्ति या उपाय है, निरवयव कर्ता धर्म है ।।१४२।।