इत्युक्त :, अवशस्य तस्य परमजिनयोगीश्वरस्य निश्चयधर्मध्यानात्मकपरमावश्यककर्मावश्यं भवतीति बोद्धव्यम् । निरवयवस्योपायो युक्ति : । अवयवः कायः, अस्याभावात् अवयवाभावः । अवशः परद्रव्याणां निरवयवो भवतीति निरुक्ति : व्युत्पत्तिश्चेति ।
अन्येषां यो न वश इति या संस्थितिः सा निरुक्ति : ।
स्फू र्जज्ज्योतिःस्फु टितसहजावस्थयाऽमूर्तता स्यात् ।।२३९।।
‘आवश्यक’ है [इति बोद्धव्यम् ] ऐसा जानना; [युक्तिः इति ] वह (अशरीरी होनेकी) युक्ति है, [उपायः इति च ] वह (अशरीर होनेका) उपाय है, [निरवयवः भवति ] उससे जीव निरवयव (अर्थात् अशरीर) होता है । [निरुक्तिः ] ऐसी निरुक्ति है ।
टीका : — यहाँ, ❃अवश परमजिनयोगीश्वरको परम आवश्यक कर्म अवश्य है ऐसा कहा है ।
जो योगी निज आत्माके परिग्रहके अतिरिक्त अन्य पदार्थोंके वश नहीं होता और इसीलिये जिसे ‘अवश’ कहा जाता है, उस अवश परमजिनयोगीश्वरको निश्चयधर्मध्यानस्वरूप परम - आवश्यक - कर्म अवश्य है ऐसा जानना । (वह परम - आवश्यक - कर्म ) निरवयवपनेका उपाय है, युक्ति है । अवयव अर्थात् काय; उसका (कायका) अभाव वह अवयवका अभाव (अर्थात् निरवयवपना) । परद्रव्योंको अवश जीव निरवयव होता है (अर्थात् जो जीव परद्रव्योंको वश नहीं होता वह अकाय होता है ) । इसप्रकार निरुक्ति — व्युत्पत्ति — है ।
[अब इस १४२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] कोई योगी स्वहितमें लीन रहता हुआ शुद्धजीवास्तिकायके अतिरिक्त अन्य पदार्थोंके वश नहीं होता । इसप्रकार जो सुस्थित रहना सो निरुक्ति (अर्थात् ❃ अवश = परके वश न हों ऐसे; स्ववश; स्वाधीन; स्वतंत्र ।