परद्रव्याणां वशो भूत्वा, ततस्तस्य जघन्यरत्नत्रयपरिणतेर्जीवस्य स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मध्यान- लक्षणपरमावश्यककर्म न भवेदिति अशनार्थं द्रव्यलिङ्गं गृहीत्वा स्वात्मकार्यविमुखः सन् अवशपनेका व्युत्पत्ति - अर्थ ) है । ऐसा करनेसे ( – अपनेमें लीन रहकर परको वश न होनेसे ) ❃दुरितरूपी तिमिरपुंजका जिसने नाश किया है ऐसे उस योगीको सदा प्रकाशमान ज्योति द्वारा सहज अवस्था प्रगट होनेसे अमूर्तपना होता है । २३९ ।
गाथा : १४३ अन्वयार्थ : — [यः ] जाे [अशुभभावेन ] अशुभ भाव सहित [वर्तते ] वर्तता है, [सः श्रमणः ] वह श्रमण [अन्यवशः भवति ] अन्यवश है; [तस्मात् ] इसलिये [तस्य तु ] उसे [आवश्यकलक्षणं कर्म ] आवश्यकस्वरूप कर्म [न भवेत् ] नहीं है ।
टीका : — यहाँ, भेदोपचार - रत्नत्रयपरिणतिवाले जीवको अवशपना नहीं है ऐसा कहा है ।
जो श्रमणाभास – द्रव्यलिंगी अप्रशस्त रागादिरूप अशुभभाव सहित वर्तता है, वह निज स्वरूपसे अन्य ( – भिन्न ) ऐसे परद्रव्योंके वश है; इसलिये उस जघन्य रत्नत्रयपरिणतिवाले जीवको स्वात्माश्रित निश्चय - धर्मध्यानस्वरूप परम - आवश्यक - कर्म नहीं है । (वह श्रमणाभास ) भोजन हेतु द्रव्यलिंग ग्रहण करके स्वात्मकार्यसे विमुख ❃ दुरित = दुष्कृत; दुष्कर्म । (पाप तथा पुण्य दोनों वास्तवमें दुरित हैं ।)