रहता हुआ परम तपश्चरणादिके प्रति भी उदासीन (लापरवाह ) रहकर जिनेन्द्रमन्दिर
अथवा उसका क्षेत्र, मकान, धन, धान्यादिक सब हमारा है ऐसी बुद्धि करता है ।
[अब इस १४३वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज पाँच श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] त्रिलोकरूपी मकानमें रहे हुए (महा ) तिमिरपुंज जैसा
मुनियोंका यह (कोई ) नवीन तीव्र मोहनीय है कि (पहले ) वे तीव्र वैराग्यभावसे घासके
घरको भी छोड़कर (फि र ) ‘हमारा वह अनुपम घर !’ ऐसा स्मरण करते हैं ! २४०।
[श्लोकार्थ : — ] कलिकालमें भी कहीं कोई भाग्यशाली जीव मिथ्यात्वादिरूप
मलकीचड़से रहित और ❃सद्धर्मरक्षामणि ऐसा समर्थ मुनि होता है । जिसने अनेक परिग्रहोंके
विस्तारको छोड़ा है और जो पापरूपी अटवीको जलानेवाली अग्नि है ऐसा यह मुनि इस
काल भूतलमें तथा देवलोकमें देवोंसे भी भलीभाँति पुजाता है ।२४१।
परमतपश्चरणादिकमप्युदास्य जिनेन्द्रमन्दिरं वा तत्क्षेत्रवास्तुधनधान्यादिकं वा सर्वमस्मदीयमिति
मनश्चकारेति ।
(मालिनी)
अभिनवमिदमुच्चैर्मोहनीयं मुनीनां
त्रिभुवनभुवनान्तर्ध्वांतपुंजायमानम् ।
तृणगृहमपि मुक्त्वा तीव्रवैराग्यभावाद्
वसतिमनुपमां तामस्मदीयां स्मरन्ति ।।२४०।।
(शार्दूलविक्रीडित)
कोपि क्वापि मुनिर्बभूव सुकृती काले कलावप्यलं
मिथ्यात्वादिकलंकपंकरहितः सद्धर्मरक्षामणिः ।
सोऽयं संप्रति भूतले दिवि पुनर्देवैश्च संपूज्यते
मुक्तानेकपरिग्रहव्यतिकरः पापाटवीपावकः ।।२४१।।
❃सद्धर्मरक्षामणि = सद्धर्मकी रक्षा करनेवाला मणि । (रक्षामणि = आपत्तियोंसे अथवा पिशाच आदिसे
अपनेको बचानेके लिये पहिना जानेवाला मणि ।)
कहानजैनशास्त्रमाला ]निश्चय-परमावश्यक अधिकार[ २८७