Niyamsar (Hindi). Gatha: 144.

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२८८ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
(शिखरिणी)
तपस्या लोकेस्मिन्निखिलसुधियां प्राणदयिता
नमस्या सा योग्या शतमखशतस्यापि सततम्
परिप्राप्यैतां यः स्मरतिमिरसंसारजनितं
सुखं रेमे कश्चिद्बत कलिहतोऽसौ जडमतिः
।।२४२।।
(आर्या)
अन्यवशः संसारी मुनिवेषधरोपि दुःखभाङ्नित्यम्
स्ववशो जीवन्मुक्त : किंचिन्न्यूनो जिनेश्वरादेषः ।।२४३।।
(आर्या)
अत एव भाति नित्यं स्ववशो जिननाथमार्गमुनिवर्गे
अन्यवशो भात्येवं भृत्यप्रकरेषु राजवल्लभवत।।२४४।।
जो चरदि संजदो खलु सुहभावे सो हवेइ अण्णवसो
तम्हा तस्स दु कम्मं आवासयलक्खणं ण हवे ।।१४४।।

[श्लोकार्थ : ] इस लोकमें तपश्चर्या समस्त सुबुद्धियोंको प्राणप्यारी है; वह योग्य तपश्चर्या सो इन्द्रोंको भी सतत वंदनीय है उसे प्राप्त करके जो कोई जीव कामान्धकारयुक्त संसारजनित सुखमें रमता है, वह जड़मति अरेरे ! कलिसे हना हुआ है (कलिकालसे घायल हुआ है ) २४२

[श्लोकार्थ : ] जो जीव अन्यवश है वह भले मुनिवेशधारी हो तथापि संसारी है, नित्य दुःखका भोगनेवाला है; जो जीव स्ववश है वह जीवन्मुक्त है, जिनेश्वरसे किंचित् न्यून है (अर्थात् उसमें जिनेश्वरदेवकी अपेक्षा थोड़ी-सी कमी है ) २४३

[श्लोकार्थ : ] ऐसा होनेसे ही जिननाथके मार्गमें मुनिवर्गमें स्ववश मुनि सदा शोभा देता है; और अन्यवश मुनि नौकरके समूहोंमें राजवल्लभ नौकर समान शोभा देता है (अर्थात् जिसप्रकार योग्यता रहित, खुशामदी नौकर शोभा नहीं देता उसीप्रकार अन्यवश मुनि शोभा नहीं देता ) २४४ राजवल्लभ = जो (खुशामदसे) राजाका मानीता (माना हुआ) बन गया हो

संयत चरे शुभभावमें, वह श्रमण है वश अन्यके
अतएव आवश्यकस्वरूप न कर्म होता है उसे ।।१४४।।