कारणका कारण ऐसे सहजपरमात्माको भजो — कि जो सहजपरमात्मा परमानन्दमय है,
सर्वथा निर्मल ज्ञानका आवास है, निरावरणस्वरूप है तथा नय-अनयके समूहसे (सुनयों
तथा कुनयोंके समूहसे ) दूर है ।२४५।
गाथा : १४५ अन्वयार्थ : — [यः ] जो [द्रव्यगुणपर्यायाणां ] द्रव्य-गुण-
पर्यायोंमें (अर्थात् उनके विकल्पोंमें ) [चित्तं करोति ] मन लगाता है, [सः अपि ] वह
भी [अन्यवशः ] अन्यवश है; [मोहान्धकारव्यपगतश्रमणाः ] मोहान्धकार रहित श्रमण
[ईद्रशम् ] ऐसा [कथयन्ति ] कहते हैं ।
टीका : — यहाँ भी अन्यवशका स्वरूप कहा है ।
भगवान अर्हत्के मुखारविन्दसे निकले हुए ( – कहे गये ) मूल और उत्तर पदार्थोंका
सार्थ ( – अर्थ सहित ) प्रतिपादन करनेमें समर्थ ऐसा जो कोई द्रव्यलिङ्गधारी (मुनि ) कभी
छह द्रव्योंमें चित्त लगाता है, कभी उनके मूर्त-अमूर्त चेतन-अचेतन गुणोंमें मन लगाता है
और फि र कभी उनकी अर्थपर्यायों तथा व्यंजनपर्यायोंमें बुद्धि लगाता है, परन्तु त्रिकाल-
निरावरण, नित्यानन्द जिसका लक्षण है ऐसे निजकारणसमयसारके स्वरूपमें लीन
सकलविमलज्ञानावासं निरावरणात्मकं
सहजपरमात्मानं दूरं नयानयसंहतेः ।।२४५।।
दव्वगुणपज्जयाणं चित्तं जो कुणइ सो वि अण्णवसो ।
मोहंधयारववगयसमणा कहयंति एरिसयं ।।१४५।।
द्रव्यगुणपर्यायाणां चित्तं यः करोति सोप्यन्यवशः ।
मोहान्धकारव्यपगतश्रमणाः कथयन्तीद्रशम् ।।१४५।।
अत्राप्यन्यवशस्य स्वरूपमुक्त म् ।
यः कश्चिद् द्रव्यलिङ्गधारी भगवदर्हन्मुखारविन्दविनिर्गतमूलोत्तरपदार्थसार्थप्रतिपादन-
समर्थः क्वचित् षण्णां द्रव्याणां मध्ये चित्तं धत्ते, क्वचित्तेषां मूर्तामूर्तचेतनाचेतनगुणानां मध्ये
कहानजैनशास्त्रमाला ]निश्चय-परमावश्यक अधिकार[ २९१
जो जोड़ता चित द्रव्य - गुण - पर्यायचिन्तनमें अरे !
रे मोह-विरहित - श्रमण कहते अन्यके वश ही उसे ।।१४५।।