सहजज्ञानादि शुद्धगुणपर्यायोंके आधारभूत निज आत्मतत्त्वमें कभी भी चित्त नहीं लगाता, उस
तपोधनको भी उस कारणसे ही (अर्थात् पर विकल्पोंके वश होनेके कारणसे ही ) अन्यवश
कहा गया है ।
जिन्होंने दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्मरूपी तिमिरसमूहका नाश किया है
और परमात्मतत्त्वकी भावनासे उत्पन्न वीतरागसुखामृतके पानमें जो उन्मुख (तत्पर ) हैं ऐसे
श्रमण वास्तवमें महाश्रमण हैं, परम श्रुतकेवली हैं; वे वास्तवमें अन्यवशका ऐसा
( – उपरोक्तानुसार ) स्वरूप कहते हैं ।
इसीप्रकार (अन्यत्र श्लोक द्वारा ) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] आत्मकार्यको छोड़कर द्रष्ट तथा अद्रष्टसे विरुद्ध ऐसी उस
चिन्तासे ( – प्रत्यक्ष तथा परोक्षसे विरुद्ध ऐसे विकल्पोंसे ) ब्रह्मनिष्ठ यतियोंको क्या प्रयोजन
है ?’’
और (इस १४५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] जिसप्रकार ईंधनयुक्त अग्नि वृद्धिको प्राप्त होती है (अर्थात् जब
मनश्चकार, पुनस्तेषामर्थव्यंजनपर्यायाणां मध्ये बुद्धिं करोति, अपि तु त्रिकालनिरावरण-
नित्यानंदलक्षणनिजकारणसमयसारस्वरूपनिरतसहजज्ञानादिशुद्धगुणपर्यायाणामाधारभूतनिजात्म-
तत्त्वे चित्तं कदाचिदपि न योजयति, अत एव स तपोधनोऽप्यन्यवश इत्युक्त : ।
प्रध्वस्तदर्शनचारित्रमोहनीयकर्मध्वांतसंघाताः परमात्मतत्त्वभावनोत्पन्नवीतराग-
सुखामृतपानोन्मुखाः श्रवणा हि महाश्रवणाः परमश्रुतकेवलिनः, ते खलु कथयन्तीद्रशम्
अन्यवशस्य स्वरूपमिति ।
तथा चोक्त म् —
(अनुष्टुभ्)
‘‘आत्मकार्यं परित्यज्य द्रष्टाद्रष्टविरुद्धया ।
यतीनां ब्रह्मनिष्ठानां किं तया परिचिन्तया ।।’’
तथा हि —
(अनुष्टुभ्)
यावच्चिन्तास्ति जन्तूनां तावद्भवति संसृतिः ।
यथेंधनसनाथस्य स्वाहानाथस्य वर्धनम् ।।२४६।।
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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-