Niyamsar (Hindi).

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२९२ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
मनश्चकार, पुनस्तेषामर्थव्यंजनपर्यायाणां मध्ये बुद्धिं करोति, अपि तु त्रिकालनिरावरण-
नित्यानंदलक्षणनिजकारणसमयसारस्वरूपनिरतसहजज्ञानादिशुद्धगुणपर्यायाणामाधारभूतनिजात्म-
तत्त्वे चित्तं कदाचिदपि न योजयति, अत एव स तपोधनोऽप्यन्यवश इत्युक्त :

प्रध्वस्तदर्शनचारित्रमोहनीयकर्मध्वांतसंघाताः परमात्मतत्त्वभावनोत्पन्नवीतराग- सुखामृतपानोन्मुखाः श्रवणा हि महाश्रवणाः परमश्रुतकेवलिनः, ते खलु कथयन्तीद्रशम् अन्यवशस्य स्वरूपमिति

तथा चोक्त म्
(अनुष्टुभ्)
‘‘आत्मकार्यं परित्यज्य द्रष्टाद्रष्टविरुद्धया
यतीनां ब्रह्मनिष्ठानां किं तया परिचिन्तया ।।’’
तथा हि
(अनुष्टुभ्)
यावच्चिन्तास्ति जन्तूनां तावद्भवति संसृतिः
यथेंधनसनाथस्य स्वाहानाथस्य वर्धनम् ।।२४६।।

सहजज्ञानादि शुद्धगुणपर्यायोंके आधारभूत निज आत्मतत्त्वमें कभी भी चित्त नहीं लगाता, उस तपोधनको भी उस कारणसे ही (अर्थात् पर विकल्पोंके वश होनेके कारणसे ही ) अन्यवश कहा गया है

जिन्होंने दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्मरूपी तिमिरसमूहका नाश किया है और परमात्मतत्त्वकी भावनासे उत्पन्न वीतरागसुखामृतके पानमें जो उन्मुख (तत्पर ) हैं ऐसे श्रमण वास्तवमें महाश्रमण हैं, परम श्रुतकेवली हैं; वे वास्तवमें अन्यवशका ऐसा (उपरोक्तानुसार ) स्वरूप कहते हैं

इसीप्रकार (अन्यत्र श्लोक द्वारा ) कहा है कि :
‘‘[श्लोकार्थ : ] आत्मकार्यको छोड़कर द्रष्ट तथा अद्रष्टसे विरुद्ध ऐसी उस

चिन्तासे (प्रत्यक्ष तथा परोक्षसे विरुद्ध ऐसे विकल्पोंसे ) ब्रह्मनिष्ठ यतियोंको क्या प्रयोजन है ?’’

और (इस १४५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) :

[श्लोकार्थ : ] जिसप्रकार ईंधनयुक्त अग्नि वृद्धिको प्राप्त होती है (अर्थात् जब