करणवाचामगोचरं सदा निरावरणत्वान्निर्मलस्वभावं निखिलदुरघवीरवैरिवाहिनीपताकालुंटाकं निजकारणपरमात्मानं ध्यायति स एवात्मवश इत्युक्त : । तस्याभेदानुपचाररत्नत्रयात्मकस्य तक ईंधन है तब तक अग्निकी वृद्धि होती है ), उसीप्रकार जब तक जीवोंको चिन्ता (विकल्प ) है तब तक संसार है । २४६ ।
गाथा : १४६ अन्वयार्थ : — [परभावं परित्यज्य ] जो परभावको परित्याग कर [निर्मलस्वभावम् ] निर्मल स्वभाववाले [आत्मानं ] आत्माको [ध्यायति ] ध्याता है, [सः खलु ] वह वास्तवमें [आत्मवशः भवति ] आत्मवश है [तस्य तु ] और उसे [आवश्यम् कर्म ] आवश्यक कर्म [भणन्ति ] (जिन ) कहते हैं ।
जो (श्रमण ) निरुपराग निरंजन स्वभाववाला होनेके कारण औदयिकादि परभावोंके समुदायको परित्याग कर, निज कारणपरमात्माको — कि जो (कारणपरमात्मा ) काया, इन्द्रिय और वाणीको अगोचर है, सदा निरावरण होनेसे निर्मल स्वभाववाला है और समस्त ❃
लूटनेवाला है उसे — ध्याता है, उसीको ( – उस श्रमणको ही ) आत्मवश कहा गया है । उस अभेद – अनुपचाररत्नत्रयात्मक श्रमणको समस्त बाह्यक्रियाकांड - आडम्बरके ❃ दुरघ = दुष्ट अघ; दुष्ट पाप । (अशुभ तथा शुभ कर्म दोनों दुरघ हैं ।)