विविध विकल्पोंके महा कोलाहलसे प्रतिपक्ष ❃महा - आनन्दानन्दप्रद निश्चयधर्मध्यान तथा
निश्चयशुक्लध्यानस्वरूप परमावश्यक - कर्म है ।
[अब इस १४६वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज आठ श्लोक
कहते हैं : — ]
[श्लोकार्थ : — ] उदार जिसकी बुद्धि है, भवका कारण जिसने नष्ट किया है, पूर्व
कर्मावलिका जिसने हनन कर दिया है और स्पष्ट उत्कट विवेक द्वारा प्रगट-शुद्धबोधस्वरूप
सदाशिवमय सम्पूर्ण मुक्तिको जो प्रमोदसे प्राप्त करता है, ऐसा वह स्ववश मुनिश्रेष्ठ जयवन्त
है ।२४७।
[श्लोकार्थ : — ] कामदेवका जिन्होंने नाश किया है और (ज्ञान - दर्शन - चारित्र - तप -
वीर्यात्मक ) पंचाचारसे सुशोभित जिनकी आकृति है — ऐसे अवंचक (मायाचार रहित )
गुरुका वाक्य मुक्तिसम्पदाका कारण है ।२४८।
[श्लोकार्थ : — ] निर्वाणका कारण ऐसा जो जिनेन्द्रका मार्ग उसे इसप्रकार
निखिलबाह्यक्रियाकांडाडंबरविविधविकल्पमहाकोलाहलप्रतिपक्षमहानंदानंदप्रदनिश्चयधर्मशुक्ल-
ध्यानात्मकपरमावश्यककर्म भवतीति ।
(पृथ्वी)
जयत्ययमुदारधीः स्ववशयोगिवृन्दारकः
प्रनष्टभवकारणः प्रहतपूर्वकर्मावलिः ।
स्फु टोत्कटविवेकतः स्फु टितशुद्धबोधात्मिकां
सदाशिवमयां मुदा व्रजति सर्वथा निर्वृतिम् ।।२४७।।
(अनुष्टुभ्)
प्रध्वस्तपंचबाणस्य पंचाचारांचिताकृतेः ।
अवंचकगुरोर्वाक्यं कारणं मुक्ति संपदः ।।२४८।।
(अनुष्टुभ्)
इत्थं बुद्ध्वा जिनेन्द्रस्य मार्गं निर्वाणकारणम् ।
निर्वाणसंपदं याति यस्तं वंदे पुनः पुनः ।।२४९।।
❃परम आवश्यक कर्म निश्चयधर्मध्यान तथा निश्चयशुक्लध्यानस्वरूप है — कि जो ध्यान महा आनन्द –
आनन्दके देनेवाले हैं । यह महा आनन्द-आनन्द विकल्पोंके महा कोलाहलसे विरुद्ध है ।
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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-