-महतिमहावीराभिधानैः सनाथः परमेश्वरो महादेवाधिदेवः पश्चिमतीर्थनाथः त्रिभुवनसचराचर-
द्रव्यगुणपर्यायैकसमयपरिच्छित्तिसमर्थसकलविमलकेवलज्ञानदर्शनाभ्यां युक्तो यस्तं प्रणम्य
वक्ष्यामि कथयामीत्यर्थः । कम्? नियमसारम् । नियमशब्दस्तावत् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेषु
वर्तते, नियमसार इत्यनेन शुद्धरत्नत्रयस्वरूपमुक्त म् । किंविशिष्टम् ? केवलिश्रुतकेवलि-
भणितं — केवलिनः सकलप्रत्यक्षज्ञानधराः, श्रुतकेवलिनः सकलद्रव्यश्रुतधरास्तैः केवलिभिः
श्रुतकेवलिभिश्च भणितं — सकलभव्यनिकुरम्बहितकरं नियमसाराभिधानं परमागमं वक्ष्यामीति
विशिष्टेष्टदेवतास्तवनानन्तरं सूत्रकृता पूर्वसूरिणा श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवगुरुणा प्रतिज्ञातम् । इति
सर्वपदानां तात्पर्यमुक्त म् ।
(मालिनी)
जयति जगति वीरः शुद्धभावास्तमारः
त्रिभुवनजनपूज्यः पूर्णबोधैकराज्यः ।
नतदिविजसमाजः प्रास्तजन्मद्रुबीजः
समवसृतिनिवासः केवलश्रीनिवासः ।।८।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]जीव अधिकार[ ५
युक्त हैं, जो परमेश्वर हैं, महादेवाधिदेव हैं, अन्तिम तीर्थनाथ हैं, जो तीन भुवनके सचराचर,
द्रव्य - गुण - पर्यायोंको एक समयमें जानने-देखनेमें समर्थ ऐसे सकलविमल ( – सर्वथा
निर्मल) केवलज्ञानदर्शनसे संयुक्त हैं उन्हें — प्रणाम करके कहता हूँ । क्या कहता हूँ ?
‘नियमसार’ कहता हूँ । ‘नियम’ शब्द, प्रथम तो, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रके लिये है ।
‘नियमसार’ (‘नियमका सार’) ऐसा कहकर शुद्ध रत्नत्रयका स्वरूप कहा है । कैसा है
वह ? केवलियों तथा श्रुतकेवलियोंने कहा हुआ है । ‘केवली’ वे सकलप्रत्यक्ष ज्ञानके
धारण करनेवाले और ‘श्रुतकेवली’ वे सकल द्रव्यश्रुतके धारण करनेवाले; ऐसे केवलियों
तथा श्रुतकेवलियोंने कहा हुआ, सकल भव्यसमूहको हितकर, ‘नियमसार’ नामका परमागम
मैं कहता हूँ । इसप्रकार, विशिष्ट इष्टदेवताका स्तवन करके, फि र सूत्रकार पूर्वाचार्य श्री
कुन्दकुन्दाचार्यदेवगुरुने प्रतिज्ञा की ।
— इसप्रकार सर्व पदोंका तात्पर्य कहा गया ।
[अब पहली गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते है :]
[श्लोेकार्थ : — ] शुद्धभाव द्वारा ✽मारका (कामका) जिन्होंने नाश किया है, तीन
✽ मार = (१) कामदेव; (२) हिंसा; (३) मरण ।
श्ल