[श्लोकार्थ : — ] ऐसा होनेसे, मुक्तिरूपी स्त्रीके पुष्ट स्तनयुगलके
आलिंगनसौख्यकी स्पृहावाला भव्य जीव समस्त वचनरचनाको सर्वदा छोड़कर, नित्यानन्द
आदि अतुल महिमाके धारक निजस्वरूपमें स्थित रहकर, अकेला (निरालम्बरूपसे ) सर्व
जगतजालको (समस्त लोकसमूहको ) तृण समान (तुच्छ ) देखता है ।२६३।
इसीप्रकार (श्री मूलाचारमें पंचाचार अधिकारमें २१९वीं गाथा द्वारा ) कहा है
कि : —
‘‘[गाथार्थ : — ] परिवर्तन (पढ़े हुए को दुहरा लेना वह ), वाचना
(शास्त्रव्याख्यान ), पृच्छना (शास्त्रश्रवण ), अनुप्रेक्षा (अनित्यत्वादि बारह अनुप्रेक्षा ) और
धर्मकथा (६३ शलाकापुरुषोंके चरित्र ) — ऐसे पाँच प्रकारका, ❃स्तुति तथा मंगल सहित,
स्वाध्याय है ।’’
(मंदाक्रांता)
मुक्त्वा भव्यो वचनरचनां सर्वदातः समस्तां
निर्वाणस्त्रीस्तनभरयुगाश्लेषसौख्यस्पृहाढयः ।
नित्यानंदाद्यतुलमहिमाधारके स्वस्वरूपे
स्थित्वा सर्वं तृणमिव जगज्जालमेको ददर्श ।।२६३।।
तथा चोक्त म् —
‘‘परियट्टणं च वायण पुच्छण अणुपेक्खणा य धम्मकहा ।
थुदिमंगलसंजुत्तो पंचविहो होदि सज्झाउ ।।’’
जदि सक्कदि कादुं जे पडिकमणादिं करेज्ज झाणमयं ।
सत्तिविहीणो जा जइ सद्दहणं चेव कायव्वं ।।१५४।।
❃ स्तुति = देव और मुनिको वन्दन । (धर्मकथा, स्तुति और मंगल मिलकर स्वाध्यायका पाँचवाँ प्रकार
माना जाता है ।)
जो कर सको तो ध्यानमय प्रतिक्रमण आदिक कीजिये ।
यदि शक्ति हो नहिं तो अरे श्रद्धान निश्चय कीजिये ।।१५४।।
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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-