Niyamsar (Hindi). Gatha: 153.

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मलरहित चारित्रमें स्थित है, वह आत्मा चारित्रका पुंज है समरसरूपी सुधाके सागरको
उछालनेमें पूर्ण चन्द्र समान उस आत्माको मैं वन्दन करता हूँ २६२
गाथा : १५३ अन्वयार्थ :[वचनमयं प्रतिक्रमणं ] वचनमय प्रतिक्रमण,
[वचनमयप्रत्याख्यानं ] वचनमय प्रत्याख्यान, [नियमः ] (वचनमय ) नियम [च ] और
[वचनमयमआलोचनं ] वचनमय आलोचना
[तत् सर्वं ] यह सब [स्वाध्यायम् ]
(प्रशस्त अध्यवसायरूप ) स्वाध्याय [जानीहि ] जान
टीका :यह, समस्त वचनसम्बन्धी व्यापारका निरास (निराकरण, खण्डन ) है
पाक्षिक आदि प्रतिक्रमणक्रियाका कारण ऐसा जो निर्यापक आचार्यके मुखसे
निकला हुआ, समस्त पापक्षयके हेतुभूत, सम्पूर्ण द्रव्यश्रुत वह वचनवर्गणायोग्य
पुद्गलद्रव्यात्मक होनेसे ग्राह्य नहीं है
प्रत्याख्यान, नियम और आलोचना भी
(पुद्गलद्रव्यात्मक होनेसे) ग्रहण करने योग्य नहीं हैं वह सब पौद्गलिक वचनमय होनेसे
स्वाध्याय है ऐसा हे शिष्य ! तू जान
[अब यहाँ टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं :]
वयणमयं पडिकमणं वयणमयं पच्चखाण णियमं च
आलोयण वयणमयं तं सव्वं जाण सज्झायं ।।१५३।।
वचनमयं प्रतिक्रमणं वचनमयं प्रत्याख्यानं नियमश्च
आलोचनं वचनमयं तत्सर्वं जानीहि स्वाध्यायम् ।।१५३।।
सकलवाग्विषयव्यापारनिरासोऽयम्
पाक्षिकादिप्रतिक्रमणक्रियाकारणं निर्यापकाचार्यमुखोद्गतं समस्तपापक्षयहेतुभूतं
द्रव्यश्रुतमखिलं वाग्वर्गणायोग्यपुद्गलद्रव्यात्मकत्वान्न ग्राह्यं भवति, प्रत्याख्यान-
नियमालोचनाश्च
पौद्गलिकवचनमयत्वात्तत्सर्वं स्वाध्यायमिति रे शिष्य त्वं जानीहि इति
कहानजैनशास्त्रमाला ]निश्चय-परमावश्यक अधिकार[ ३०७
रे ! वचनमय प्रतिक्रमण, वाचिक-नियम, प्रत्याख्यान ये
आलोचना वाचिक, सभीको जान तू स्वाध्याय रे ।।१५३।।