Niyamsar (Hindi).

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गाथा : १५२ अन्वयार्थ :[प्रतिक्रमणप्रभृतिक्रियां ] प्रतिक्रमणादि क्रियाको
[निश्चयस्य चारित्रम् ] निश्चयके चारित्रको[कुर्वन् ] (निरन्तर ) करता रहता है [तेन
तु ] इसलिये [श्रमणः ] वह श्रमण [विरागचरिते ] वीतराग चारित्रमें [अभ्युत्थितः भवति ]
आरूढ़ है
टीका :यहाँ परम वीतराग चारित्रमें स्थित परम तपोधनका स्वरूप कहा है
जिसने ऐहिक व्यापार (सांसारिक कार्य ) छोड़ दिया है ऐसा जो साक्षात्
अपुनर्भवका (मोक्षका ) अभिलाषी महामुमुक्षु सकल इन्द्रियव्यापारको छोड़ा होनेसे
निश्चयप्रतिक्रमणादि सत्क्रियाको करता हुआ स्थित है (अर्थात् निरन्तर करता है ), वह परम
तपोधन उस कारणसे निजस्वरूपविश्रान्तिलक्षण परमवीतराग
- चारित्रमें स्थित है (अर्थात् वह
परम श्रमण, निश्चयप्रतिक्रमणादि निश्चयचारित्रमें स्थित होनेके कारण, जिसका लक्षण निज
स्वरूपमें विश्रांति है ऐसे परमवीतराग चारित्रमें स्थित है )
[अब इस १५२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] दर्शनमोह और चारित्रमोह जिसके नष्ट हुए हैं ऐसा जो अतुल
महिमावाला आत्मा संसारजनित सुखके कारणभूत कर्मको छोड़कर मुक्तिका मूल ऐसे
प्रतिक्रमणप्रभृतिक्रियां कुर्वन् निश्चयस्य चारित्रम्
तेन तु विरागचरिते श्रमणोभ्युत्थितो भवति ।।१५२।।
परमवीतरागचारित्रस्थितस्य परमतपोधनस्य स्वरूपमत्रोक्त म्
यो हि विमुक्तैहिकव्यापारः साक्षादपुनर्भवकांक्षी महामुमुक्षुः परित्यक्त सकलेन्द्रिय-
व्यापारत्वान्निश्चयप्रतिक्रमणादिसत्क्रियां कुर्वन्नास्ते, तेन कारणेन स्वस्वरूपविश्रान्तिलक्षणे
परमवीतरागचारित्रे स परमतपोधनस्तिष्ठति इति
(मंदाक्रांता)
आत्मा तिष्ठत्यतुलमहिमा नष्टद्रक्शीलमोहो
यः संसारोद्भवसुखकरं कर्म मुक्त्वा विमुक्तेः
मूले शीले मलविरहिते सोऽयमाचारराशिः
तं वंदेऽहं समरससुधासिन्धुराकाशशांकम्
।।२६२।।
३०६ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-