रहित द्रव्यलिंगधारी द्रव्यश्रमण बहिरात्मा है ऐसा हे शिष्य ! तू जान ।
[अब यहाँ टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] कोई मुनि सतत - निर्मल धर्मशुक्ल - ध्यानामृतरूपी समरसमें
सचमुच वर्तता है; (वह अन्तरात्मा है; ) इन दो ध्यानोंसे रहित तुच्छ मुनि बहिरात्मा है ।
मैं पूर्वोक्त (समरसी ) योगीकी शरण लेता हूँ ।२६०।
और (इस १५१वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज द्वारा श्लोक
द्वारा ) केवल शुद्धनिश्चयनयका स्वरूप कहा जाता है : —
[श्लोकार्थ : — ] (शुद्ध आत्मतत्त्वमें ) बहिरात्मा और अन्तरात्मा ऐसा यह
विकल्प कुबुद्धियोंको होता है; संसाररूपी रमणीको प्रिय ऐसा यह विकल्प सुबुद्धियोंको
नहीं होता ।२६१।
ध्यानाभ्यां विहीनो द्रव्यलिंगधारी द्रव्यश्रमणो बहिरात्मेति हे शिष्य त्वं जानीहि ।
(वसंततिलका)
कश्चिन्मुनिः सततनिर्मलधर्मशुक्ल-
ध्यानामृते समरसे खलु वर्ततेऽसौ ।
ताभ्यां विहीनमुनिको बहिरात्मकोऽयं
पूर्वोक्त योगिनमहं शरणं प्रपद्ये ।।२६०।।
किं च केवलं शुद्धनिश्चयनयस्वरूपमुच्यते —
(अनुष्टुभ्)
बहिरात्मान्तरात्मेति विकल्पः कुधियामयम् ।
सुधियां न समस्त्येष संसाररमणीप्रियः ।।२६१।।
पडिकमणपहुदिकिरियं कुव्वंतो णिच्छयस्स चारित्तं ।
तेण दु विरागचरिए समणो अब्भुट्ठिदो होदि ।।१५२।।
प्रतिक्रमण आदिक्रिया तथा चारित्रनिश्चय आचरे ।
अतएव मुनि वह वीतराग - चरित्रमें स्थिरता करे ।।१५२।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]निश्चय-परमावश्यक अधिकार[ ३०५