Niyamsar (Hindi). Gatha: 152.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]निश्चय-परमावश्यक अधिकार[ ३०५
ध्यानाभ्यां विहीनो द्रव्यलिंगधारी द्रव्यश्रमणो बहिरात्मेति हे शिष्य त्वं जानीहि
(वसंततिलका)
कश्चिन्मुनिः सततनिर्मलधर्मशुक्ल-
ध्यानामृते समरसे खलु वर्ततेऽसौ
ताभ्यां विहीनमुनिको बहिरात्मकोऽयं
पूर्वोक्त योगिनमहं शरणं प्रपद्ये
।।२६०।।
किं च केवलं शुद्धनिश्चयनयस्वरूपमुच्यते
(अनुष्टुभ्)
बहिरात्मान्तरात्मेति विकल्पः कुधियामयम्
सुधियां न समस्त्येष संसाररमणीप्रियः ।।२६१।।
पडिकमणपहुदिकिरियं कुव्वंतो णिच्छयस्स चारित्तं
तेण दु विरागचरिए समणो अब्भुट्ठिदो होदि ।।१५२।।

रहित द्रव्यलिंगधारी द्रव्यश्रमण बहिरात्मा है ऐसा हे शिष्य ! तू जान

[अब यहाँ टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]

[श्लोकार्थ : ] कोई मुनि सतत - निर्मल धर्मशुक्ल - ध्यानामृतरूपी समरसमें सचमुच वर्तता है; (वह अन्तरात्मा है; ) इन दो ध्यानोंसे रहित तुच्छ मुनि बहिरात्मा है मैं पूर्वोक्त (समरसी ) योगीकी शरण लेता हूँ २६०

और (इस १५१वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज द्वारा श्लोक द्वारा ) केवल शुद्धनिश्चयनयका स्वरूप कहा जाता है :

[श्लोकार्थ : ] (शुद्ध आत्मतत्त्वमें ) बहिरात्मा और अन्तरात्मा ऐसा यह विकल्प कुबुद्धियोंको होता है; संसाररूपी रमणीको प्रिय ऐसा यह विकल्प सुबुद्धियोंको नहीं होता २६१

प्रतिक्रमण आदिक्रिया तथा चारित्रनिश्चय आचरे
अतएव मुनि वह वीतराग - चरित्रमें स्थिरता करे ।।१५२।।