Niyamsar (Hindi). Gatha: 151.

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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
जो धम्मसुक्कझाणम्हि परिणदो सो वि अंतरंगप्पा
झाणविहीणो समणो बहिरप्पा इदि विजाणीहि ।।१५१।।
यो धर्मशुक्लध्यानयोः परिणतः सोप्यन्तरंगात्मा
ध्यानविहीनः श्रमणो बहिरात्मेति विजानीहि ।।१५१।।
अत्र स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मशुक्लध्यानद्वितयमेवोपादेयमित्युक्त म्
इह हि साक्षादन्तरात्मा भगवान् क्षीणकषायः तस्य खलु भगवतः क्षीणकषाय-

स्य षोडशकषायाणामभावात् दर्शनचारित्रमोहनीयकर्मराजन्ये विलयं गते अत एव सहज- चिद्विलासलक्षणमत्यपूर्वमात्मानं शुद्धनिश्चयधर्मशुक्लध्यानद्वयेन नित्यं ध्यायति आभ्यां जिसने निज अभ्यन्तर अङ्ग प्रगट किया है ऐसा अन्तरात्मा, मोह क्षीण होने पर, किसी (अद्भुत ) परम तत्त्वको अन्तरमें देखता है २५९

गाथा : १५१ अन्वयार्थ :[यः ] जो [धर्मशुक्लध्यानयोः ] धर्मध्यान और शुक्लध्यानमें [परिणतः ] परिणत है [सः अपि ] वह भी [अन्तरंगात्मा ] अन्तरात्मा है; [ध्यानविहीनः ] ध्यानविहीन [श्रमणः ] श्रमण [बहिरात्मा ] बहिरात्मा है [इति विजानीहि ] ऐसा जान

टीका :यहाँ (इस गाथामें ), स्वात्माश्रित निश्चय - धर्मध्यान और निश्चय - शुक्लध्यान यह दो ध्यान ही उपादेय हैं ऐसा कहा है

यहाँ (इस लोकमें ) वास्तवमें साक्षात् अन्तरात्मा भगवान क्षीणकषाय हैं वास्तवमें उन भगवान क्षीणकषायको सोलह कषायोंका अभाव होनेके कारण दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्मरूपी योद्धाओंके दल नष्ट हुए हैं इसलिये वे (भगवान क्षीणकषाय )

सहजचिद्विलासलक्षण अति - अपूर्व आत्माको शुद्धनिश्चय -

धर्मध्यान और शुद्धनिश्चय - शुक्लध्यान इन दो ध्यानों द्वारा नित्य ध्याते हैं इन दो ध्यानों सहजचिद्विलासलक्षण = जिसका लक्षण (चिह्न अथवा स्वरूप) सहज चैतन्यका विलास है ऐसे

रे धर्म-शुक्ल-सुध्यान-परिणत अन्तरात्मा जानिये
अरु ध्यान विरहित श्रमणको बहिरातमा पहिचानिये ।।१५१।।