मेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षाम् ।
स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रम् ।।’’
स्मृत्वा नित्यं समरसमयं चिच्चमत्कारमेकम् ।
क्षीणे मोहे किमपि परमं तत्त्वमन्तर्ददर्श ।।२५९।।
मनको लगाता है, वह बहिरात्मा जीव है । निज आत्माके ध्यानमें परायण वर्तता हुआ निरवशेषरूपसे (सम्पूर्णरूपसे ) अन्तर्मुख रहकर (परम तपोधन ) प्रशस्त - अप्रशस्त समस्त विकल्पजालोंमें कभी भी नहीं वर्तता इसीलिये परम तपोधन साक्षात् अन्तरात्मा है ।
इसीप्रकार (आचार्यदेव ) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति नामक टीकामें ९०वें श्लोक द्वारा ) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] इसप्रकार जिसमें बहु विकल्पोंके जाल अपनेआप उठते हैं ऐसी विशाल नयपक्षकक्षाको (नयपक्षकी भूमिको ) लाँघकर (तत्त्ववेदी ) भीतर और बाहर समता - रसरूपी एक रस ही जिसका स्वभाव है ऐसे अनुभूतिमात्र एक अपने भावको ( – स्वरूपको ) प्राप्त होता है ।’’
और (इस १५०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] भवभयके करनेवाले, बाह्य तथा अभ्यन्तर जल्पको छोड़कर, समरसमय (समतारसमय ) एक चैतन्यचमत्कारका सदा स्मरण करके, ज्ञानज्योति द्वारा