[श्लोकार्थ : — ] योगी सदा सहज परम आवश्यक कर्मसे युक्त रहता हुआ
संसारजनित प्रबल सुखदुःखरूपी अटवीसे दूरवर्ती होता है इसलिये वह योगी अत्यन्त
आत्मनिष्ठ अंतरात्मा है; जो स्वात्मासे भ्रष्ट हो वह बहिःतत्त्वनिष्ठ (बाह्य तत्त्वमें लीन )
बहिरात्मा है ।२५८।
गाथा : १५० अन्वयार्थ : — [यः ] जो [अन्तरबाह्यजल्पे ] अन्तर्बाह्य जल्पमें
[वर्तते ] वर्तता है, [सः ] वह [बहिरात्मा ] बहिरात्मा [भवति ] है; [यः ] जो [जल्पेषु ]
जल्पोंमें [न वर्तते ] नहीं वर्तता, [सः ] वह [अन्तरंगात्मा ] अन्तरात्मा [उच्यते ] कहलाता है ।
टीका : — यह, बाह्य तथा अन्तर जल्पका निरास (निराकरण, खण्डन ) है ।
जो जिनलिंगधारी तपोधनाभास पुण्यकर्मकी कांक्षासे स्वाध्याय, प्रत्याख्यान, स्तवन
आदि बहिर्जल्प करता है और अशन, शयन, गमन, स्थिति आदिमें ( – खाना, सोना, गमन
करना, स्थिर रहना इत्यादि कार्योंमें ) सत्कारादिकी प्राप्तिका लोभी वर्तता हुआ अन्तर्जल्पमें
(मंदाक्रांता)
योगी नित्यं सहजपरमावश्यकर्मप्रयुक्त :
संसारोत्थप्रबलसुखदुःखाटवीदूरवर्ती ।
तस्मात्सोऽयं भवति नितरामन्तरात्मात्मनिष्ठः
स्वात्मभ्रष्टो भवति बहिरात्मा बहिस्तत्त्वनिष्ठः ।।२५८।।
अंतरबाहिरजप्पे जो वट्टइ सो हवेइ बहिरप्पा ।
जप्पेसु जो ण वट्टइ सो उच्चइ अंतरंगप्पा ।।१५०।।
अन्तरबाह्यजल्पे यो वर्तते स भवति बहिरात्मा ।
जल्पेषु यो न वर्तते स उच्यतेऽन्तरंगात्मा ।।१५०।।
बाह्याभ्यन्तरजल्पनिरासोऽयम् ।
यस्तु जिनलिंगधारी तपोधनाभासः पुण्यकर्मकांक्षया स्वाध्यायप्रत्याख्यानस्तवनादि-
बहिर्जल्पं करोति, अशनशयनयानस्थानादिषु सत्कारादिलाभलोभस्सन्नन्तर्जल्पे मनश्चकारेति
३०२ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
जो बाह्य अन्तर जल्पमें वर्ते वही बहिरातमा ।
जो जल्पमें वर्ते नहिं वह जीव अन्तरआतमा ।।१५०।।