परिप्राप्य स्थितो महात्मा । असंयतसम्यग्द्रष्टिर्जघन्यांतरात्मा । अनयोर्मध्यमाः सर्वे
तथा हि — सोलह कषायोंके अभाव द्वारा क्षीणमोहपदवीको प्राप्त करके स्थित है । असंयत सम्यग्दृष्टि जघन्य अन्तरात्मा है । इन दोके मध्यमें स्थित सर्व मध्यम अन्तरात्मा हैं । निश्चय और व्यवहार इन दो नयोंसे प्रणीत जो परम आवश्यक क्रिया उससे जो रहित हो वह बहिरात्मा है ।
[श्लोकार्थ : — ] अन्यसमय (अर्थात् परमात्माके अतिरिक्त जीव ) बहिरात्मा और अन्तरात्मा ऐसे दो प्रकारके हैं; उनमें बहिरात्मा देह-इन्द्रिय आदिमें आत्मबुद्धिवाला होता है ।’’
‘‘[श्लोकार्थ : — ] अंतरात्माके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे (तीन ) भेद हैं; अविरत सम्यग्दृष्टि वह प्रथम (जघन्य ) अंतरात्मा है, क्षीणमोह वह अन्तिम (उत्कृष्ट ) अंतरात्मा है और उन दोके मध्यमें स्थित वह मध्यम अंतरात्मा है ।’’
और (इस १४९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —