[श्लोकार्थ : — ] स्ववश मुनीन्द्रको उत्तम स्वात्मचिंतन (निजात्मानुभवन ) होता है; और यह (निजात्मानुभवनरूप ) आवश्यक कर्म (उसे ) मुक्तिसौख्यका कारण होता है ।२५७।
गाथा : १४९ अन्वयार्थ : — [आवश्यकेन युक्तः ] आवश्यक सहित [श्रमणः ] श्रमण [सः ] वह [अंतरंगात्मा ] अन्तरात्मा [भवति ] है; [आवश्यकपरिहीणः ] आवश्यक रहित [श्रमणः ] श्रमण [सः ] वह [बहिरात्मा ] बहिरात्मा [भवति ] है ।
टीका : — यहाँ, आवश्यक कर्मके अभावमें तपोधन बहिरात्मा होता है ऐसा कहा है ।
अभेद - अनुपचार - रत्नत्रयात्मक ❃स्वात्मानुष्ठानमें नियत परमावश्यक - कर्मसे निरंतर संयुक्त ऐसा जो ‘स्ववश’ नामका परम श्रमण वह सर्वोत्कृष्ट अंतरात्मा है; यह महात्मा ❃ स्वात्मानुष्ठान = निज आत्माका आचरण । (परम आवश्यक कर्म अभेद-अनुपचार-रत्नत्रयस्वरूप