शाश्वत सुखको प्राप्त करता है ।२५६।
[श्लोकार्थ : — ] स्ववश मुनीन्द्रको उत्तम स्वात्मचिंतन (निजात्मानुभवन ) होता
है; और यह (निजात्मानुभवनरूप ) आवश्यक कर्म (उसे ) मुक्तिसौख्यका कारण
होता है ।२५७।
गाथा : १४९ अन्वयार्थ : — [आवश्यकेन युक्तः ] आवश्यक सहित
[श्रमणः ] श्रमण [सः ] वह [अंतरंगात्मा ] अन्तरात्मा [भवति ] है; [आवश्यकपरिहीणः ]
आवश्यक रहित [श्रमणः ] श्रमण [सः ] वह [बहिरात्मा ] बहिरात्मा [भवति ] है ।
टीका : — यहाँ, आवश्यक कर्मके अभावमें तपोधन बहिरात्मा होता है ऐसा
कहा है ।
अभेद - अनुपचार - रत्नत्रयात्मक ❃स्वात्मानुष्ठानमें नियत परमावश्यक - कर्मसे निरंतर
संयुक्त ऐसा जो ‘स्ववश’ नामका परम श्रमण वह सर्वोत्कृष्ट अंतरात्मा है; यह महात्मा
(अनुष्टुभ्)
स्ववशस्य मुनीन्द्रस्य स्वात्मचिन्तनमुत्तमम् ।
इदं चावश्यकं कर्म स्यान्मूलं मुक्ति शर्मणः ।।२५७।।
आवासएण जुत्तो समणो सो होदि अंतरंगप्पा ।
आवासयपरिहीणो समणो सो होदि बहिरप्पा ।।१४९।।
आवश्यकेन युक्त : श्रमणः स भवत्यंतरंगात्मा ।
आवश्यकपरिहीणः श्रमणः स भवति बहिरात्मा ।।१४९।।
अत्रावश्यककर्माभावे तपोधनो बहिरात्मा भवतीत्युक्त : ।
अभेदानुपचाररत्नत्रयात्मकस्वात्मानुष्ठाननियतपरमावश्यककर्मणानवरतसंयुक्त : स्व-
❃ स्वात्मानुष्ठान = निज आत्माका आचरण । (परम आवश्यक कर्म अभेद-अनुपचार-रत्नत्रयस्वरूप
स्वात्माचरणमें नियमसे विद्यमान है अर्थात् वह स्वात्माचरण ही परम आवश्यक कर्म है ।)
रे साधु आवश्यक सहित वह अन्तरात्मा जानिये ।
इससे रहित हो साधु जो बहिरातमा पहिचानिये ।।१४९।।
३०० ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-