श्चारित्रपरिभ्रष्ट इति यावत्, शुद्धनिश्चयेन परमाध्यात्मभाषयोक्त निर्विकल्पसमाधिस्वरूपपरमा- वश्यकक्रियापरिहीणश्रमणो निश्चयचारित्रभ्रष्ट इत्यर्थः । पूर्वोक्त स्ववशस्य परमजिनयोगीश्वरस्य निश्चयावश्यकक्रमेण स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मशुक्लध्यानस्वरूपेण सदावश्यकं करोतु परममुनिरिति ।
कुर्यादुच्चैरघकुलहरं निर्वृतेर्मूलभूतम् ।
वाचां दूरं किमपि सहजं शाश्वतं शं प्रयाति ।।२५६।।
[आवश्यकं कुर्यात् ] आवश्यक करना चाहिये ।
यहाँ (इस लोकमें ) व्यवहारनयसे भी, समता, स्तुति, वन्दना, प्रत्याख्यान आदि छह आवश्यकसे रहित श्रमण चारित्रपरिभ्रष्ट (चारित्रसे सर्वथा भ्रष्ट) है; शुद्धनिश्चयसे, परम - अध्यात्मभाषासे जिसे निर्विकल्प - समाधिस्वरूप कहा जाता है ऐसी परम आवश्यक क्रियासे रहित श्रमण निश्चयचारित्रभ्रष्ट है; — ऐसा अर्थ है । (इसलिये ) स्ववश परमजिनयोगीश्वरके निश्चय - आवश्यकका जो क्रम पहले कहा गया है उस क्रमसे ( – उस विधिसे ), स्वात्माश्रित ऐसे निश्चय - धर्मध्यान तथा निश्चय - शुक्लध्यानस्वरूपसे, परम मुनि सदा आवश्यक करो ।
[अब इस १४८वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] आत्माको अवश्य मात्र सहज - परम - आवश्यक एकको ही — कि जो ❃अघसमूहका नाशक है और मुक्तिका मूल ( – कारण ) है उसीको — अतिशयरूपसे करना चाहिये । (ऐसा करनेसे, ) सदा निज रसके फै लावसे पूर्ण भरा होनेके कारण पवित्र और पुराण (सनातन ) ऐसा वह आत्मा वाणीसे दूर (वचन - अगोचर ) ऐसे किसी सहज ❃ अघ = दोष; पाप । (अशुभ तथा शुभ दोनों अघ हैं ।)